
निधीनंव पवत्तारं, यं पस्से वज्जदस्सिनं
निग्गय्हवादिं मेधाविं, तादिसं पण्डितं भजे
तादिसं भजमानस्स, सेय्यो होति न पापियो ।
1. खजाने का स्थान दिखाने वाले मित्र की तरह ज्ञानी व्यक्ति अपने लोगों के गलती को देखने पर कभी-कभी कठोर वाणी से भी अनुशासन कर सकते हैं। ऐसे ज्ञानी सत्पुरूषों की ही संगती करनी चाहिये। वैसे ज्ञानी लोगों की संगती करने से सदा कल्याण ही होता है, अमंगल कभी नहीं होता।
ओवदेय्यानुसासेय्य, असब्भा च निवारये
सतं हि सो पियो होति, असतं होति अप्पियो ।
2. ज्ञानी कल्याण मित्र गलतियों से छुटकारा पाने के लिये उपदेश देते हैं। सन्मार्ग पर चलने के लिये अनुशासन करते हैं। पाप से बचाते हैं। वैसा कल्याण मित्र ज्ञानी सत्पुरूषों को बहुत प्रिय लगता है परन्तु असत्पुरूष को नहीं।
न भजे पापके मित्ते, न भजे पुरिसाधमे
भजेथ मित्ते कल्याणे, भजेथ पुरिसुत्तमे ।
3. पापी मित्रों की संगती ना करे और ना ही संगती करे नीच इच्छायें रखने वालों के साथ। कल्याण मित्रों की संगती करें। शील-सदाचार, समाधि, प्रज्ञा आदि गुणों से भरपूर उत्तम लोगों की संगती करें।
धम्मपीति सुखं सेति, विप्पसन्नेन चेतसा
अरियप्पवेदिते धम्मे, सदा रमति पण्डितो ।
4. अमृत निर्वाण का बोध कर प्रीति-प्रसन्न मन वाले ज्ञानी व्यक्ति खुशी से सोता है। ऐसा ज्ञानी व्यक्ति बुद्धवचन को सदा प्रेम करता है।
उदकं हि नयन्ति नेत्तिका, उसुकारा नमयन्ति तेजनं
दारुं नमयन्ति तच्छका, अत्तानं दमयन्ति पण्डिता ।
5. खेतों में पानी ले जाने वाले किसान अपनी रूचि के अनुसार जहाँ चाहते हैं, वहाँ पानी ले जाते हैं। बाण बनाने वाले बाण को मोड़ते हुये अपनी इच्छानुसार बनाते हैं। बढ़ई अपनी इच्छानुसार लकड़ी का सामान बनाते हैं। ज्ञानी व्यक्ति भी उसी तरह अपने आप को सुधारता है।
सेलो यथा एकघनो, वातेन न समीरति
एवं निन्दापसंसासु, न समिञ्जन्ति पण्डिता ।
6. जैसे विशाल पर्वत प्रचंड वायु के प्रहार से भी कम्पित नहीं होता है, वैसे ही ज्ञानी सत्पुरूष निंदा-प्रशंसा के मिलने पर कम्पित नहीं होते हैं।
यथापि रहदो गम्भीरो, विप्पसन्नो अनाविलो
एवं धम्मानि सुत्वान, विप्पसीदन्ति पण्डिता ।
7. एक विशाल सरोवर है, गहरा है, पानी भी बिल्कुल साफ और अचंचल है। ठीक वैसे ही ज्ञानीजन बुद्ध वचन का अर्थ बोध कर विकार रहित हो अचंचल सुख का अनुभव करते हैं।
सब्बत्थ वे सप्पुरिसा चजन्ति, न कामकामा लपयन्ति सन्तो
सुखेन फुट्ठा अथ वा दुखेन, न उच्चावचं पण्डिता दस्सयन्ति ।
8. उत्तम सत्पुरूष लोग सभी आसक्तियों को दूर करते हैं। वैसे शांत मुनि लोग मन-पसंद चीजों को पाने की चाह से दूसरों को मक्खन नहीं लगाते हैं। उन्हें चाहे सुख मिले या दुख, वे ज्ञानी मुनिजन सुख-दुख के अनुरूप बदलते नहीं है।
न अत्तहेतु न परस्स हेतु, न पुत्तमिच्छे न धनं न रट्ठं
न इच्छेय्य अधम्मेन समिद्धिमत्तनो, स सीलवा पञ्ञवा धम्मिको सिया ।
9. ज्ञानी सज्जन अपने लिये पाप नहीं करता है, दूसरों के कारण भी पाप नहीं करता है। वो अधार्मिक ढ़ंग से मिले न पुत्र की चाह रखता है और ना ही धन की चाह रखता है। यहाँ तक कि अधार्मिक ढंग से मिले किसी भी उन्नति की चाह नहीं रखता। सचमुच, वे शीलवान, प्रज्ञावान एवं धार्मिक होता है।
अप्पका ते मनुस्सेसु, ये जना पारगामिनो
अथायं इतरा पजा, तीरमेवानुधावति ।
10. मनुष्यों में संसार भवसागर से पार केवल अल्प लोग ही जाते हैं। बाकि सारे अज्ञानी जन तो संसार-सागर में बिना तैरे तट पर ही दौड़ते-भटकते रहते हैं।
ये च खो सम्मदक्खाते, धम्मे धम्मानुवत्तिनो
ते जना पारमेस्सन्ति, मच्चुधेय्यं सुदुत्तरं ।
11. जो कोई तथागत बुद्ध के द्वारा बताये गये निर्मल धर्म के अनुसार जीवन बिताते है तो केवल वही लोग भवसागर से पार जाने में अत्यंत कठिन संसार सागर से पार चले जाते हैं। निर्वाण को पाते हैं।
कण्हं धम्मं विप्पहाय, सुक्कं भावेथ पण्डितो
ओका अनोकमागम्म, विवेके यत्थ दूरमं ।
12. ज्ञानी व्यक्ति पाप को दूर करता है और पुण्य कर्म को बढ़ाता है। इसके बाद वह गृहस्थ जीवन को त्यागकर प्रव्रजित होता है तथा वैसे निर्जन स्थान में रहता है जिसे साधारण जन नापसंद करते हैं।
तत्राभिरतिमिच्छेय्य, हित्वा कामे अकिञ्चनो
परियोदपेय्य अत्तानं, चित्तक्लेसेहि पण्डितो ।
13. वैसे एकांतवास में रहने के लिये वह पसंद करता है। कामभोगों का त्यागकर वैरागी जीवन जीने वाला ज्ञानी अपने मन को विकारों से मुक्त कर शुद्ध होता है।
येसं सम्बोधियंगेसु, सम्मा चित्तं सुभावितं
आदानपटिनिस्सग्गे, अनुपादाय ये रता
खीणासवा जुतिमन्तो, ते लोके परिनिब्बुता ।
14. जिसका मन मुक्ति-अंगों के द्वारा भलीभांति बढ़ा हुआ है, जो सभी बंधनों को छिन्न-भिन्न कर बंधन रहित हो अमृत निर्वाण में लगा है तो वह अर्हत भिक्षु ज्ञान की महिमा से चमकते हैं और इस लोक में वैसे लोग ही परिनिर्वाण को पाते हैं।