
धम्मपद – चित्त वर्ग
फन्दनं चपलं चित्तं – दुरक्खं दुन्निवारयं
उजुं करोति मेधावी – उसुकारोव तेजनं।
1. ये मन बड़ा ही चंचल है, चपल है। इसे अपने वश में रखना बहुत हीं मुश्किल है। मन को पाप से बचाना बहुत ही कठिन है। लेकिन ज्ञानी व्यक्ति उस मन को वैसे ही सीधा करता है, जैसे तीर बनाने वाला व्यक्ति तीर को सीधा करता है।
वारिजोव थले खित्तो – ओकमोकतउब्भतो
परिफन्दतिदं चित्तं – मारधेय्यं पहातवे।
2. जैसे पानी से निकाली हुई मछली जमीन पर डालने से छटपटाती है, वैसे हीं ये मन पापी विचारों में डूबकर छटपटाते रहता है। वैसे चंचल चित्त होने के कारण फंसे हुए इस मार-बंधन को दूर करना चाहिए।
दुन्निग्गहस्स लहुनो – यत्थकामनिपातिनो
चित्तस्स दमथो साधु – चित्तं दन्तं सुखावहं।
3. अपमान करके भी इस मन को सुधारना बहुत ही कठिन है। क्षण भर में बदल जाता है। मन-पसंदित चीजों के प्रति खींचे चला जाता है। वैसे मन को सुधारना बहुत हीं अच्छा है। सुधरा हुआ मन से बहुत बड़ा सुख पा सकता है।
सुदुद्दसं सुनिपुणं – यत्थकामनिपातिनं
चित्तं रक्खेथ मेधावी – चित्तं गुत्तं सुखावहं।
4. इस मन के सत्य स्वभाव को समझना बहुत ही मुश्किल है। और यह मन बहुत ही सूक्ष्म है। मन-पसंदित चीजों के प्रति खींचे चला जाता है। ज्ञानी बुद्धिमान व्यक्ति वैसे मन को पाप में न लगने देकर मन की सुरक्षा करता है। सुरक्षा किया हुआ मन से बहुत बड़ा सुख पा सकता है।
दूरङ्गमं एकचरं – असरीरं गुहासयं
ये चित्तं संयमेस्सन्ति – मोक्खन्ति मारबन्धना।
5. ये मन बहुत ही दूर तक जाता है, लेकिन अकेले ही जाता है। इस मन के पास शरीर नहीं है। लेकिन यह मन शरीर नाम की गुफा में रहता है। जो कोई वैसे मन को सुधार देता है तो वैसे लोग ही इस मार-बंधन से मुक्त हो सकते है।
अनवट्ठितचित्तस्स – सद्धम्मं अविजानतो
परिप्लवपसादस्स – पञ्ञा न परिपूरति।
6. धर्म की रास्ता पर चलने में मन स्थिर रूप से नहीं लगा हुआ है तो, सद्धर्म भी नहीं जानता है तो, बिना बोध के झूठी श्रद्धा है तो उसकी प्रज्ञा नहीं बढ़ती है।
अनवस्सुतचित्तस्स – अनन्वाहतचेतसो
पुञ्ञपापपहीनस्स – नत्थि जागरतो भयं।
7. जिसका मन काम-वासना मेें नहीं फंसता है, जिसका मन क्रोध-अग्नि से नहीं जलता है, जो पुण्य-पाप को नष्ट कर चुका है, वैसे जागृत होकर हमेशा ध्यान-साधना करने वालों को कोई भय उत्पन्न नहीं होता।
कुम्भूपमं कायमिमं विदित्वा – नगरूपमं चित्तमिदं ठपेत्वा
योधेथ मारं पञ्ञावुधेन – जितञ्च रक्खे अनिवेसनो सिया।
8. किसी भी पल फूट जाने वाली मिट्टी के बर्तन के समान इस शरीर को समझना चाहिए। नगर को सुरक्षा करने की भांति इस मन को सुरक्षित रखना चाहिए। प्रज्ञा नाम की तलवार से मार के साथ युद्ध करना है। युद्ध में जीतकर उस मन को सुरक्षित रखना चाहिए। दुबारा इस संसार में निवास-स्थान नहीं बनाना चाहिए।
अचिरं वतयं कायो – पठविं अधिसेस्सति
छुद्धो अपेतविञ्ञाणो – निरत्थंव कलिङ्गरं।
9. सचमुच में यह शरीर उतने समय तक नहीं रहता है। प्राण निकल जाने के बाद यह शरीर वैसे ही बेकार हो जाती है, जैसे व्यर्थ लकड़ी कोई काम में नहीं आती है।
दिसो दिसं यं तं कयिरा – वेरी वा पन वेरिनं
मिच्छापणिहितं चित्तं – पापियो नं ततो करे।
10. चोर किसी दूसरे चोर को हानि पहुँचाने से भी ज्यादा, बैरी किसी दूसरे बैरी को हानि पहुँचाने से भी ज्यादा अंधविश्वास में फंसा मन स्वयं को उससे कहीं अधिक पापी बनाकर हानि पहुँचाता है।
न तं माता पिता कयिरा – अञ्ञे वापि च ञातका
सम्मापणिहितं चित्तं – सेय्यसो नं ततो करे।
11. ये काम अपनी माँ करके नहीं देती है, अपना पिता करके नहीं देता है। दूसरा कोई परिवार भी करके नहीं देता है। वो कार्य है – अच्छे कार्य करके धर्म में मन को स्थिर रखना। उसी के कारण वह उत्तम इंसान बन जाता है।