एक बार आनंद थेर को संबोधित करते हुए भगवान बुद्ध ने इस प्रकार उपदेश किया: “आनंद, यह बिल्कुल वैसा ही है। यदि कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति के पास आकर बुद्ध की शरण लेता है, धर्म की शरण लेता है, संघ की शरण लेता है उस व्यक्ति के प्रति कृतज्ञता का प्रतिफल चुकाना असंभव है। वह व्यक्ति जो शरण आता है, उसकी वंदना करे, उसे देखकर उठ खड़ा हो, हाथ जोड़कर नमन करे, सेवा करे, चिवर, भिक्षा, निवास स्थान, औषधियाँ आदि प्रदान करे —इन सब से भी उसकी कृतज्ञता पूरी नहीं की जा सकती।” (दक्खिणा विभङ्ग सुत्त – म. नि. 3) श्रीलंका के लोगों के लिए, यह ऐसा समय है जब वे अपने परम कल्याण मित्र, अरहंत महेंद्र को श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं, जिनके कृतज्ञता को किसी भी तरह से पूरा करना संभव नहीं है। यह समय है पवित्र ‘ज्येष्ठ पूर्णिमा’ का। ज्येष्ठ पूर्णिमा के साथ जुड़ी स्मृतियाँ—जैसे महिंदागमन (महेंद्र का आगमन) और मिहिंतले की पावन भूमि—श्रीलंका के बौद्धों के जीवन में गहराई से समाई हुई हैं। यह वही दिन है जब इस धरती को तीनों लोकों में उत्तम शरण—बुद्ध, धर्म और संघ की प्राप्ति हुई। इस अद्भुत उपहार को श्रीलंका की धरती पर लाए थे अरहंत महेंद्र थेर, जिन्हे श्रीलंका के लोग अनुबुद्ध (दूसरे बुद्ध) कहकर पुकारते है। जब श्रीलंका पर राजा मुटसीव का शासन था, उसी समय भारत में महान सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद पश्चात्ताप में डूबकर एक धर्मराज्य की स्थापना की। कलिंग युद्ध में अनगिनत लोगों की मृत्यु देखकर वे अत्यंत दुखी हो गए थे। एक दिन, जब सम्राट अशोक अपने महल की खिड़की से बाहर झाँक रहे थे, उन्होंने सात वर्षीय निग्रोध श्रामणेर को शांत मुद्रा में सड़क पर चलते हुए देखा। इस दर्शन से वे मंत्रमुग्ध हो उठे और उन्हें अपने महल में आमंत्रित कर उनसे संवाद किया। निग्रोध श्रामणेर ने सम्राट अशोक को धम्मपद के अप्पमाद वर्ग से उपदेश दिया, जिससे सम्राट का हृदय परिवर्तित हो गया। यह था चण्डाशोक से धर्माशोक बनने का प्रारंभ। बुद्ध धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा से प्रेरित होकर, सम्राट अशोक ने 84,000 स्तूप और विहार बनवाए। उन्होंने अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को भी बुद्धशासन में प्रवर्जित करवा दिया। मोग्गलिपुत्त तिस्स थेर के मार्गदर्शन में उन्होंने तीसरी बौद्ध संगीति आयोजित करवाई और बुद्धवाणी को शुद्ध व चिरकाल के लिए संरक्षित किया। फिर उन्होंने अरहंत भिक्षुओं को धर्मदूत के रूप में दुनिया भर में बुद्धवाणी का उपदेश के लिए भेजा। उसी दौरान अरहंत महेंद्र थेर अपने हृदय में बुद्धवाणी को धारण कर श्रीलंका लाए। देवानंप्रिय तिस्स राजा, जो उस समय श्रीलंका के शासक थे, ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन मिहिंतले गए। वहीं पर उन्होंने अरहंत महेंद्र थेर और उनके साथ आए इट्ठिय, उत्तिय, सम्बल, भद्दसाल, सुमन श्रामणेर और उपासक भंडुक से भेंट की। अरहंत महेंद्र ने राजा से कहा: “समणा मयं महाराज – धम्मराजस्स सावाकातवेव अनुकम्पाय – जम्बूदीपा इधागता” “महाराज, हम धर्मराज (बुद्ध) के शिष्य, श्रमण हैं। हम आपको अनुकम्पा (दया) के लिए जंबूदीप (भारत) से यहां आए हैं।“ इसके बाद उन्होंने राजा की बुद्धिमत्ता की परीक्षा ली। जब उन्हें राजा की बुद्धिमत्ता का ज्ञान हुआ,… (Read More)
पाली भाषा में ‘वेसाख’ का अर्थ वैसाख माह से है। संस्कृत में इसे ‘वैशाख’ कहा जाता है और सिंहल भाषा में इसे ‘वेसक’ कहा जाता है। वर्तमान में यह नाम ‘वैसाख’ के रूप में अत्यंत प्रसिद्ध है। यह उस महीने का नाम है। उसी महीने में आने वाली पूर्णिमा को भी ‘वैसाख बुद्ध पूर्णिमा’ कहा… (Read More)
6. बहुत से लोग यह नहीं समझ पाते कि झगड़ा करने से उनका ही नाश होता है। पुण्यवान सज्जनों, पुण्यवान बच्चों, भगवान बुद्ध चार आर्य सत्य बताने के लिए ही इस दुनिया में प्रकट होते हैं। जिस संसार में हम जन्म लेते और मरते हैं, उसे पार करने में हम इसलिए असमर्थ हैं क्योंकि हमने… (Read More)
नफ़रत से नफ़रत कभी खत्म नहीं होती, नफ़रत खत्म होती है मैत्री करने से…! उन दिनों हमारे भगवान बुद्ध श्रावस्ती के जेतवन विहार में विराजमान थे। उस शहर में एक युवा दंपति बहुत खुशी से रहते थे। उनका एक सुन्दर बच्चा हुआ। एक दिन इस युवा माँ ने एक अद्भुत दृश्य देखी। पालने में सो… (Read More)
भिक्षु थुल्लतिस्स की कथा गुस्से से सोचोगे तो कभी शांति नहीं मिलेगी मैत्री से सोचोगे तो हर पल शांति ही मिलेगी..! गुस्से से सोचोगे तो गुस्सा कभी शांत नहीं होगा मैत्री से सोचोगे तो गुस्सा तुरंत शांत हो जाएगा…! पुण्यवान सज्जनों, पुण्यवान बच्चो, आपको पता होगा हमारे भगवान बुद्ध बुद्धत्व की प्राप्ति के बाद कपिलवस्तु… (Read More)
2. पुण्य करोगे तो सुख ही मिलेगा ! पुण्यवान सज्जनों, पुण्यवान बच्चो, जब हमारे भगवान बुद्ध श्रावस्ती में विराजमान थे, तब वहाँ अदिन्नपुब्बक नाम का एक बहुत ही कंजूस पिता था। उसके इकलौते बेटे का नाम मट्ठकुंडली था। उसने अपने बेटे के लिए दुकान से कुंडल नहीं खरीदे। उसने क्या किया ? उसने सोने के… (Read More)
पुण्यवान सज्जनों, उस समय श्रावस्ती में महा सुवण्ण नाम का एक धनी व्यापारी रहता था। उसका कोई संतान नहीं था। एक दिन जब वह घाट से स्नान करके वापस लौट रहा था, तो उसे एक विशाल वट वृक्ष दिखाई दिया, जिसकी शाखाएँ चारों ओर फैली हुई थीं । उसने सोचा ‘इस वृक्ष में महा बलशाली… (Read More)
धम्मपद – यमक वर मनोपुब्बंगमा धम्मा – मनोसेट्ठा मनोमयामनसा चे पदुट्ठेन – भासति वा करोति वाततो नं दुक्खमन्वेति – चक्कंव वहतो पदं। 1. इस जीवन में सभी अकुशल के लिए मन हीं मूल होता है। मन हीं मुख्य होता है। सभी अकुशल विचार मन से हीं उत्पन्न होता है। अगर जो कोई बुरे मन से… (Read More)
धम्मपद – अप्पमाद वर्ग अप्पमादो अमतपदं – पमादो मच्चुनो पदंअप्पमत्ता न मीयन्ति – ये पमत्ता यथा मता। 1. शील, समाधी, प्रज्ञा को बढ़ाने वाला अप्रमादी व्यक्ति अमृत निर्वाण को पाता है। लेकिन काम-वासना सुख में फंसा हुआ व्यक्ति को हमेशा केवल मृत्यु हीं मिलता है। बिना देर हुये धर्म की रास्ता पर चलने वाला व्यक्ति… (Read More)
धम्मपद – चित्त वर्ग फन्दनं चपलं चित्तं – दुरक्खं दुन्निवारयंउजुं करोति मेधावी – उसुकारोव तेजनं। 1. ये मन बड़ा ही चंचल है, चपल है। इसे अपने वश में रखना बहुत हीं मुश्किल है। मन को पाप से बचाना बहुत ही कठिन है। लेकिन ज्ञानी व्यक्ति उस मन को वैसे ही सीधा करता है, जैसे तीर… (Read More)

