धम्मपद – बाल वर

दीघा जागरतो रत्ति – दीघं सन्तस्स योजनं
दीघो बालानं संसारो – सद्धम्मं अविजानतं।

1. जागने वाले लोगों के लिये रात्रि बहुत लंबी होती है। बहुत थके हुये लोगों को पैदल जाने में योजन की दूरी बहुत लंबी होती है। उसी तरह परम सत्य को बोध न करने वाले अज्ञानी जन के लिये पीड़ादायक संसार-यात्रा बहुत लंबी होती है।

चरञ्चे नाधिगच्छेय्य – सेय्यं सदिसमत्तनो
एकचरियं दळ्हं कयिरा – नत्थि बाले सहायता।

2. किसी का आश्रय करते समय जो शील, समाधि प्रज्ञा में अपने से श्रेष्ठ है, उसी का आश्रय करना चाहिये। नहीं तो अपने से समान ज्ञान वाले लोगों का आश्रय करना चाहिये। अगर वैसा व्यक्ति भी ना मिले तो दृढ़ निश्चय कर अकेले ही रहना चाहिये। पापी असत्पुरूषों की संगति किसी भी हालत में नहीं करनी चाहिये।

पुत्ता मत्थि धनम्मत्थि – इति बालो विहञ्ञति
अत्ता हि अत्तनो नत्थि – कुतो पुत्ता कुतो धनं।

3. अज्ञानी लोग इस विचार में डूबे रहते हैं कि मेरे पास पुत्र है, मेरे पास धन-संपत्ति है। परंतु जो स्वयं अपने आप का भी नहीं है तो कहाँ से पुत्र और कहाँ से धन होगा ?

यो बालो मञ्ञति बाल्यं – पण्डितो वापि तेन सो
बालो च पण्डितमानी – स वे बालोति वुच्चति।

4. जो कोई अज्ञानी व्यक्ति अपनी अज्ञानता को जानता है तो वह इस कारण से ज्ञानी होता है। लेकिन अज्ञानी व्यक्ति ऐसा सोचता है कि वह स्वयं ज्ञानी बुद्धिमान है; तो इस कारण से वह सचमुच में अज्ञानी ही है।

यावजीवम्पि चे बालो – पण्डितं पयिरुपासति
न सो धम्मं विजानाति – दब्बी सूपरसं यथा।

5. अज्ञानी व्यक्ति पूरे जीवन भर भी ज्ञानी मुनियों की संगति करे पर फिर भी वह परम सत्य को बोध नहीं करता। जैसे कलछी भोजन के स्वाद को नहीं जानती।

मुहुत्तमपि चे विञ्ञू – पण्डितं पयिरुपासति
खिप्पं धम्मं विजानाति – जिव्हा सूपरसं यथा।

6. ज्ञानी बुद्धिमान व्यक्ति थोड़े समय के लिये ही सही प्रज्ञावान मुनियों की संगति करता है तो वह तुरंत परम सत्य को बोध करता है, जैसे जीभ भोजन के स्वाद को तुरंत चख लेती है।

चरन्ति बाला दुम्मेधा – अमित्तेनेव अत्तना
करोन्ता पापकं कम्मं – यं होति कटुकप्फलं।

7. अज्ञानी असत्पुरूष लोग स्वयं से शत्रुता करते हुये ही जीवन जीते हैं। जितना हो सके, उतना पापकर्म करते हुये समय व्यतीत करते हैं और अंत में उन्हें घोर दुख विपाक को झेलना पड़ता है।

न तं कम्मं कतं साधु – यं कत्वा अनुतप्पति
यस्स अस्सुमुखो रोदं – विपाकं पटिसेवति।

8. वैसे पाप कर्म को करना अच्छा नहीं है, जिसे करने के बाद पश्चाताप करना पड़े और जिसके फल को आंसू बहाते हुये रो-रोकर दुख भोगना पड़े।

तञ्च कम्मं कतं साधु – यं कत्वा नानुतप्पति
यस्स पतीतो सुमनो – विपाकं पटिसेवति।

9. वैसा पुण्य कर्म को ही निरंतर करना चाहिये, जिसे करने के बाद पश्चाताप न करना पड़े और जिसका फल हँसते हुये खुशी से भोगा जा सके।

मधुवा मञ्ञति बालो – याव पापं न पच्चति
यदा च पच्चति पापं – अथ बालो दुक्खं निगच्छति।

10. पापी व्यक्ति के द्वारा किया हुआ पाप का फल जब तक उसे नहीं मिल जाता, तब तक वह उस पाप को शहद के समान मानता है। लेकिन जिस दिन से पाप का फल मिलना शुरू हो जाता है, तब वह अज्ञानी व्यक्ति दुखों में डूब जाता है।

मासे मासे कुसग्गेन – बालो भुञ्जेय्य भोजनं
न सो सङ्खातधम्मानं – कलं अग्घति सोळसिं।

11. महीने में एक बार तिनका भर भोजन करने की व्यर्थ तपस्या करने वाले अज्ञानी व्यक्ति को दिये दान के पुण्य का फल, निर्वाण साक्षात् किये तथागत के भिक्षु को दिये दान के फल के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं होता।

न हि पापं कतं कम्मं – सज्जु खीरंव मुच्चति
डहन्तं बालमन्वेति – भस्मच्छन्नोव पावको।

12. गाय के थन से दूध शीघ्र तो निकल जाता ही है, लेकिन किसी के द्वारा किया गया पाप का फल शीघ्र नहीं मिल जाता। राख से ढ़की आग की तरह उचित समय आने पर पापी व्यक्ति को जलाते हुये उसका पीछा करता है।

यावदेव अनत्थाय – ञत्तं बालस्स जायति
हन्ति बालस्स सुक्कंसं – मुद्धमस्स विपातयं।

13. अज्ञानी असत्पुरूष के पास जो पाप-बुद्धि होती है, वह उसके विनाश का ही कारण बनती है। अंत में असत्पुरूष अपने मस्तिष्क के ज्ञान का भी नाश कर डालता है। उसके जीवन में जो कुछ भी अच्छाई होती है, उसे भी नष्ट कर डालता है। अपने विनाश के करीब ही जाता है।

असन्तं भावनमिच्छेय्य – पुरेक्खारञ्च भिक्खुसु
आवासेसु च इस्सरियं – पूजा परकुलेसु च।

14. अज्ञानी भिक्षु गौरव-सत्कार को पाने की चाह रखता है। भिक्षुओं के बीच मुख्य कुर्सी को पाने की चाह रखता है। आश्रमों का मालिक बनने की लालसा रखता है और दायकों से मिलने वाले लाभ-सत्कार की कामना करता है।

ममेव कतमञ्ञन्तु – गिहीपब्बजिता उभो
ममेव अतिवसा अस्सु – किच्चाकिच्चेसु किस्मिचि
इति बालस्स सङ्कप्पो – इच्छा मानो च वड्ढति।

15. अज्ञानी मूर्ख हमेशा ऐसा सोचता है कि ”ये गृहस्थ-प्रव्रजित सभी लोग हर चीज के बारे में मुझसे ही पूछना चाहिये। छोटे-बड़े सभी कार्यों के बारे में मुझसे ही उपदेश लेना चाहिये।“ इस प्रकार से उसकी पापी आशा और घमण्ड ही बढ़ता है।

अञ्ञा हि लाभूपनिसा – अञ्ञा निब्बानगामिनी
एवमेतं अभिञ्ञाय – भिक्खु बुद्धस्स सावको
सक्कारं नाभिनन्देय्य – विवेकमनुब्रूहये।

16. लाभ-सत्कार, कीर्ति-प्रशंसा को प्राप्त करने का मार्ग तो अलग है जबकि परम निर्वाण को साक्षात् करने का मार्ग अलग है। भगवान बुद्ध के श्रावक लोग उस भिन्नता को भली प्रकार से जानते हैं। इस कारण से वे लाभ-सत्कार, कीर्ति-प्रशंसा को पसंद न करके एकांतवास में ध्यान-साधना करने के लिये ही पसंद करते हैं।

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