धम्मपद – यमक वर

मनोपुब्बंगमा धम्मा – मनोसेट्ठा मनोमया
मनसा चे पदुट्ठेन – भासति वा करोति वा
ततो नं दुक्खमन्वेति – चक्कंव वहतो पदं।

1. इस जीवन में सभी अकुशल के लिए मन हीं मूल होता है। मन हीं मुख्य होता है। सभी अकुशल विचार मन से हीं उत्पन्न होता है। अगर जो कोई बुरे मन से वाणी से कुछ बोलेगा या शरीर से कुछ कर्म करेगा तो दुख उसके पीछे-पीछे ठिक वैसे हीं आता है जैसे बैलगाड़ी के चक्के, बैल के पीछे-पीछे आता है।

मनोपुब्बंगमा धम्मा – मनोसेट्ठा मनोमया
मनसा चे पसन्नेन – भासति वा करोति वा
ततो नं सुखमन्वेति – छायाव अनपायिनी।

2. इस जीवन में सभी कुशल के लिए मन हीं मूल होता है। मन हीं मुख्य होता है। सभी कुशल विचार मन से हीं उत्पन्न होता है। अगर जो कोई प्रसन्न मन से वाणी से कुछ बोलेगा या शरीर से कुछ कर्म करेगा तो सुख उसके पीछे-पीछे ठिक वैसे हीं आता है जैसे स्वयं का पीछा कभी न छोड़ने वाली छाया आती है।

अक्कोच्छि मं अवधि मं – अजिनि मं अहासि मे
ये तं उपनय्हन्ति – वेरं तेसं न सम्मति।

3. उसने मुझे मारा, उसे मुझे हराया, उसने मुझे गाली दी, उसने मुझे लूट लिया। जो कोई व्यक्ति इस प्रकार से हमेशा सोचते हुए क्रोध करता है तोे उसके जीवन से कभी भी वैर का अंत नहीं होता है।

अक्कोच्छि मं अवधि मं – अजिनि मं अहासि मे
ये तं न उपनय्हन्ति – वेरं तेसूपसम्मति।

4. उसने मुझे मारा, उसे मुझे हराया, उसने मुझे गाली दी, उसने मुझे लूट लिया। जो कोई व्यक्ति इस प्रकार से नहीं सोचते हुए क्रोध उत्पन्न नहीं करता है तोे उसके जीवन से वैर का अंत हो जाता है।

न हि वेरेन वेरानि – सम्मन्तीध कुदाचनं
अवेरेन च सम्मन्ति – एस धम्मो सनन्तनो।

5. इस लोक में कभी भी वैर (नफरत) करने से वैर का अंत नहीं होता है। वैर नहीं करने से हीं वैर का अंत होता है। यही लोक का सनातन धर्म है।

परे च न विजानन्ति – मयमेत्थ यमामसे
ये च तत्थ विजानन्ति – ततो सम्मन्ति मेधगा।

6. इस प्रकार से झगड़ा करने गया तो खुद का हीं विनाश होता है, ऐसा झगड़ा करने वाले लोग नहीं जानते हैं। लेकिन जो कोई समझ लेता है कि झगड़ा से खुद का हीं विनाश होता है तो उनलोगों का उसी विचार से झगड़ा शांत हो जाता है।

सुभानुपस्सिं विहरन्तं – इन्द्रियेसु असंवुतं
भोजनम्हि च अमत्तञ्ञुं – कुसीतं हीनवीरियं
तं वे पसहति मारो – वातो रुक्खंव दुब्बलं।

7. स्वयं केे मन को भड़काने वाले चीजों को शुभ प्रकार से देखने गया तो, आंख, कान, नाक आदि इन्द्रियों को अपने वश में नहीं किया तो भोजन करने का सही अर्थ भी नहीं समझता है तो वह मन की विकारों को नष्ट करने में आलसी और अल्प-उत्साही है। पापी मार उसे ठिक वैसे हीं अपने वश में कर लेता है, जैसे हवा दुर्बल वृक्ष को गिरा देती है।

असुभानुपस्सिं विहरन्तं – इन्द्रियेसु सुसंवुतं
भोजनम्हि च मत्तञ्ञुं – सद्धं आरद्धवीरियं
तं वे नप्पसहति मारो – वातो सेलंव पब्बतं।

8. जैसे देखने से राग दूर होता है, वैसे अशुभ चीज अशुभ प्रकार से हीं देखता है तो आंख कान नाक आदि इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है तो, भोजन करने का सही अर्थ भी समझता है तो वो श्रद्धावान है। वो आर्य अष्टांगिक मार्ग पर चलने वाला उत्साही और पराक्रमी है। पापी मार उसे वैसे हीं नहीं हिला सकता है जैसे भारी तूफान चट्टान या पर्वत को नहीं हिला पाती है।

अनिक्कसावो कासावं – यो वत्थं परिदहेस्सति
अपेतो दमसच्चेन – न सो कासावमरहति।

9. जो कोई इस श्रमण-चीवर को चित्त विकारों के साथ पहना हुआ है, अपनी इन्द्रियों को अपने वश में नहीं किया है, असत्य बोलने वाला है। वो व्यक्ति इस श्रमण-चीवर को धारण करने के अयोग्य है।

यो च वन्तकसावस्स – सीलेसु सुसमाहितो
उपेतो दमसच्चेन – स वे कासावमरहति।

10. जो कोई इस श्रमण-चीवर को धारण कर चित्त विकारों को दूर कर दिया है तो, शीलवान है तो, समाधी से युक्त है तो, इन्द्रियों को अपनी वश में कर लिया है तो, सत्य बोलने वाला है तो, सचमुच में वो हीं इस श्रमण-चीवर के योग्य है।

असारे सारमतिनो – सारे चासारदस्सिनो
ते सारं नाधिगच्छन्ति – मिच्छासंकप्पगोचरा।

11. इस लोक में निरर्थक चीजें है। लेकिन कोई-कोई लोगों को वो चीज अमूल्य जैसा दिखता है। तथा शील, समाधी, प्रज्ञा आदि श्रेष्ठ चीज उनलोगों को व्यर्थ जैसा दिखता है। वे लोग अंधविश्वासों का शिकार बने हुये हैं। उनलोगों को कभी भी श्रेष्ठ चीज नहीं मिलता है।

सारंच सारतो ञत्वा – असारंच असारतो
ते सारं अधिगच्छन्ति – सम्मासंकप्पगोचरा।

12. सम्यक्दृष्टि के कारण सम्यक्संकल्प उत्पन्न किये हुये वाले लोग है। वे लोग शील, समाधी, प्रज्ञा आदि श्रेष्ठ चीजों को बोध से हीं श्रेष्ठ जैसा समझ जाता है, तथा निरर्थक चीजों को निरर्थक जैसा समझ जाता है। इसलिए उनलोग श्रेष्ठ निर्वाण को पा लेता है।

यथागारं दुच्छन्नं – वुट्ठि समतिविज्झति
एवं अभावितं चित्तं – रागो समतिविज्झति।

13. अगर घर का छत गलत तरीका से बनाया हुआ है तो वर्षा होते समय उसी छत से घर में पानी गिरता है। वैसे हीं सम्यक्दृष्टि के द्वारा अगर मन को नहीं बढ़ाया है तो उस व्यक्ति के मन में राग आदि अनेक विकार घुस जाते हैं।

यथागारं सुच्छन्नं – वुट्ठि न समतिविज्झति
एवं सुभावितं चित्तं – रागो न समतिविज्झति।

14. अगर घर का छत सही तरीका से बनाया हुआ है तो वर्षा होते समय उसी छत से घर में पानी नहीं गिरती है। वैसे हीं सम्यक्दृष्टि के द्वारा अगर मन को सही तरीका से बढ़ाया है तो उस व्यक्ति के मन में राग आदि अनेक विकार नहीं घुसतेे हैं।

इध सोचति पेच्च सोचति – पापकारी उभयत्थ सोचति
सो सोचति सो विहञ्ञति – दिस्वा कम्मकिलिट्ठमत्तनो।

15. पाप करने वाला व्यक्ति इस जन्म में शोक करता है, मरने के बाद अगले जन्म में भी शोक करता है। वो दोनों जन्मों में शोक करता है। खुद के द्वारा किया हुआ पापी-कर्म के फल को देखकर वो बहुत शोक करता है, बहुत पीड़ित होता है।

इध मोदति पेच्च मोदति – कतपुञ्ञो उभयत्थ मोदति
सो मोदति सो पमोदति – दिस्वा कम्मविसुद्धिमत्तनो।

16. पुण्य करने वाला व्यक्ति इस जन्म में खुश हो जाता है, मरने के बाद अगले जन्म में भी खुश हो जाता है। वो दोनों जन्मों में खुश हो जाता है। खुद के द्वारा किया हुआ पुण्य-कर्म के फल को देखकर वो बहुत खुश हो जाता है, बहुत आनंदित होता है।

इध तप्पति पेच्च तप्पति – पापकारी उभयत्थ तप्पति
पापं मे कतन्ति तप्पति – भीय्यो तप्पति दुग्गतिं गतो।

17. पाप करने वाला व्यक्ति इस जन्म में पछताता है, मरने के बाद अगले जन्म में भी पछताता है। वह दोनों जन्मों में पश्चाताप करता है। ओह…! मैं बहुत पाप किया हूँ, इस प्रकार से बहुत पश्चाताप करता है। दुर्गति में जन्म लेने के बाद वह बहुत-बहुत पछताता करता है।

इध नन्दति पेच्च नन्दति – कतपुञ्ञो उभयत्थ नन्दति
पुञ्ञं मे कतन्ति नन्दति – भीय्यो नन्दति सुग्गतिं गतो।

18. पुण्य करने वाला व्यक्ति इस जन्म में आनंदित होता है, मरने के बाद अगले जन्म में भी आनंदित है। वह दोनों जन्मों में आनंदित होता है। मैं बहुत पुण्य किया हूँ, इस प्रकार से खुश होता है। स्वर्ग में जन्म लेने के बाद वह बहुत आनंदित होता है।

बहुम्पि चे सहितं भासमानो – न तक्करो होति नरो पमत्तो
गोपोव गावो गणयं परेसं – न भागवा सामञ्ञस्स होति।

19. कुशल कर्मों में देर होने वाला प्रमादी व्यक्ति दूसरों को कितना भी ज्ञान की बात बताए लेकिन स्वयं उस ज्ञान का पालन नहीं करता है तो, वह दूसरों की गायों को देखभाल करने वाला ग्वाला जैसा है। अपने श्रमण-जीवन में स्रोतापन्न आदि मार्गफलों को प्राप्त नहीं कर पाता है।

अप्पम्पि चे सहितं भासमानो – धम्मस्स होति अनुधम्मचारी
रागं च दोसं च पहाय मोहं – सम्मप्पजानो सुविमुत्तचित्तो।
अनुपादियानो इध वा हुरं वा – स भागवा सामञ्ञस्स होति

20. धर्म पर चलने वाला व्यक्ति ज्ञान की बात चाहे थोड़ा हीं क्यों न बताता हो, लेकिन वह उस ज्ञान को पालन करके अपने राग, द्वेष, मोह को दूर करता है। धर्म की बोध से पूर्ण वैरागी चिŸा बना लेता है। वह इस लोक तथा परलोक में किसी भी चीज पर बंधन नहीं होता है। वैसा भिक्षु हीं अपने श्रमण-जीवन से स्रोतापन्न आदि श्रेष्ठ मार्गफलों को प्राप्त करने का अधिकारी होता है।

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