6. बहुत से लोग यह नहीं समझ पाते कि झगड़ा करने से उनका ही नाश होता है।
पुण्यवान सज्जनों, पुण्यवान बच्चों,
भगवान बुद्ध चार आर्य सत्य बताने के लिए ही इस दुनिया में प्रकट होते हैं। जिस संसार में हम जन्म लेते और मरते हैं, उसे पार करने में हम इसलिए असमर्थ हैं क्योंकि हमने उन चार सत्यों का बोध नहीं किया है। जो लोग चार आर्य सत्य को नहीं समझते, वे चारों दुर्गतियों से मुक्त नहीं हो सकते। इसलिए, यह ख़तरा उन सभी के लिए है जिन्होंने चार आर्य सत्यों को बोध नहीं किया है।
जब भगवान बुद्ध ने जनम लेकर सांसारिक प्राणियों को वह धर्म सिखाया, जो इस भयंकर संसार से पार ले जाता है, तब केवल बुद्धिमान लोग ही उस धर्म को सुनते हैं, उस धर्म का आचरण करते हैं, और धर्म का बोध करके चार दुर्गतियों से मुक्त हो जाते हैं। वे संसार सागर से पार हो जाते हैं। लेकिन मूर्ख व्यक्ति, चाहे वह कितने भी शुद्ध मन से भिक्षु क्यों न बना हो, अपनी बुद्धि की कमी के कारण उस मूल उद्देश्य से भटक जाता है। वह लाभ, सत्कार, कीर्ति और प्रशंसा में फंस जाता है। सामाजिक प्रतिष्ठा पाने की चाहत में वह ग़लत रास्ते पर चल पड़ता है। अंत में, वह चार आर्य सत्य को ही खो देता है।
जब भगवान बुद्ध जीवित थे, तब भी दो प्रकार के लोग थे, जो चार आर्य सत्य को बोध के उद्देश्य से भिक्षु बने थे। ऐसे कई महान भिक्षु थे, जिन्होंने स्वयं का आश्रय लिया और अपने भिक्षु जीवन में सफल हुए। उन्होंने यह नहीं देखा कि अन्य लोग क्या कर रहे हैं या नहीं कर रहे हैं, बल्कि उन्होंने स्वयं पर ध्यान दिया कि वे क्या कर रहे हैं या नहीं कर रहे हैं।
लेकिन उस समय ऐसे असंयमित और घमंडी भिक्षु भी थे, जो छोटी-छोटी बातों पर झगड़ा कर वैर रखते थे और बिना सोचे-समझे कार्य करते थे। जब भगवान बुद्ध जीवित थे, तब भी ये भिक्षु अपने मन की बुराई को नहीं पहचान सके। वे भगवान बुद्ध के प्रवचनों के प्रति विनम्र नहीं बने। इसलिए उन्होंने बड़ी गड़बड़ी कर दी। ये घटना कुछ ऐसी ही है।
कोसंबी में घोषित नामक एक अमीर सेठ था। उसने बहुत धन खर्च कर एक विहार बनवाया और उसे बुद्ध-शासन को अर्पित किया, जिसमें एक हजार भिक्षु रह सकते थे। उस विहार को ‘घोषीताराम’ के नाम से जाना जाता था।
विहार में रहने वाले भिक्षुओं में पाँच सौ भिक्षु विनय का अभ्यास करते थे और पाँच सौ भिक्षु धर्म का अभ्यास करते थे।
एक दिन, धर्मधर भिक्षुओं के नायक भिक्षु भूलवश शौचालय के बर्तन से पानी बिना हटाए उसमें थोड़ा सा पानी छोड़कर लौट आए। यह वास्तव में बहुत छोटी बात थी, जिसे आसानी से सुलझाया जा सकता था।
लेकिन विनयधर भिक्षुओं ने इस छोटी सी भूल को एक बड़ी गलती मान लिया और इसके बारे में गंभीर चर्चा करने लगे। इसी कारण दोनों दलों में विभाजन हो गया। दायक लोग भी विभाजित हो गए।
लेकिन मुख्य दायकों ने दोनों दलों को फिर से मिलाने के लिए कड़ी मेहनत की, वे भिक्षु आपस में मेल नहीं कर सके क्योंकि वे बहुत घमंडी थे। कई लोग चीवर धारण करने के बाद अत्यधिक अहंकार करने लगते हैं और किसी का आदेश नहीं मानते। ऐसे मुर्ख लोग घमंड से भरकर स्वयं को अधिक महत्व देने लगते हैं। यहाँ भी वही हुआ।
अंततः भगवान बुद्ध ने तीन बार वहां जाकर बड़ी करुणा के साथ उन्हें मिलाने की सलाह दी और दीघिति कोशल जातक कथा बताई।
एक समय की बात है, वाराणसी में ‘वाराणसी’ नामक एक धनी राजा रहता था। उस राज्य के निकट दीघिति कोशल नामक एक प्रादेशिक राजा था, जो बहुत अमीर नहीं था। बनारस के राजा ने उस राज्य पर आक्रमण करने की योजना बनाई। यह बात राजा दीघिति कोशल को पता चली। राजा अपने राज्य को छोड़कर रानी के साथ भाग गया और घरों में मजदूरी का काम करते हुए जीवन व्यतीत करने लगा।
बनारस के राजा के जासूसों ने उन दोनों को पकड़ लिया और गिरफ़्तार कर लिया। उन्हें मौत की सज़ा सुनाई गई। दोनों के गले में लाल गुड़हल के फूलों की मालाएँ पहना दी गईं और मृत्यु का ढोल बजाते हुए उन्हें सड़कों पर ले जाया गया।
इस बीच, राजा दीघिति कोशल का इकलौता बेटा, जिसका नाम दीर्घायु था, अपने माता-पिता की तलाश में गुरुकुल से लौट रहा था। वह अपने माता-पिता को हत्या के स्थान की ओर ले जाते हुए देख रहा था, तो वह भीड़ में से आगे बढ़ आया।
राजा दीघिति कोशल ने अपने पुत्र को पहचान लिया और चिल्लाकर कहा – “बेटा, पास मत देखो, दूर देखो।”
किसी को यह पता नहीं था कि राजा का एक पुत्र भी है, इसलिए किसी ने राजा की बात नहीं समझी।
दीर्घायु बहुत बुद्धिमान था। उसने तुरंत अपने पिता की अंतिम सलाह को समझ लिया। वह पीछे हटकर भीड़ में गुम हो गया। राजा और रानी को मार दिया गया। उनके हाथ-पैर काटकर शहर में लटका दिए गए।
उस रात दीर्घायु चुपके से आया और लोगों को पैसे देकर अपने माता-पिता के शरीर के टुकड़े इकट्ठा किए और उनका अंतिम संस्कार कर दिया। फिर वह प्रदेश छोड़कर चला गया।
अब कुमार दीर्घायु के मन में एक ही विचार था – उस राजा से बदला लेना जिसने उसके माता-पिता को मारा था।
वह बड़ा होकर आकर्षक और बुद्धिमान युवक बन गया। वह सेवा के लिए राजमहल में शामिल हो गया।
धीरे-धीरे वह राजा का विश्वासपात्र बन गया और राजा का सबसे अच्छा मित्र बन गया।
एक दिन राजा अपने दरबारियों के साथ शिकार पर गया। दीर्घायु ही घोड़े की बागडोर संभाल रहा था। उसने राजा को धीरे-धीरे भीड़ से दूर कर दिया और जंगल में ले गया।
राजा शिकार करते-करते थक चुका था और अकेला पड़ गया। उसे नींद आने लगी। राजा ने दीर्घायु की गोद में सिर रखकर विश्राम किया और क्षण भर में गहरी नींद में सो गया।
राजकुमार के मन में पुरानी घटनाएँ जीवंत होने लगीं।
क्रोध पर नियंत्रण पाना कठिन था। “हाँ… अब मैं इस व्यक्ति को मार डालूँगा। जिसने मेरे माता-पिता को मारा, उसे एक क्षण के लिए भी जीवित नहीं छोड़ना चाहिए।”
उसने तलवार म्यान से खींच ली और मूठ को कसकर पकड़ा।
तभी उसके पिता की अंतिम सलाह उसके कानों में गूंज उठी – “बेटा दीर्घायु, पास मत देखो, दूर देखो।”
राजकुमार ने सोचा – “हाँ, मेरे पिता, मैं पास नहीं देखूंगा, दूर देखूंगा।”
उसने धीरे से तलवार को म्यान में रख दिया।
क्षण भर में वह बदले की भावना भूल गया।
लेकिन थोड़ी देर बाद नफ़रत फिर से जाग उठी और उसने दोबारा तलवार खींच ली।
आश्चर्य की बात थी कि उसके मन में फिर से पिता की सलाह गूंज उठी। उसने तलवार वापस म्यान में डाल दी।
तीसरी बार जब उसने तलवार खींची, तो इस बार उसने सोचा – “अब तो मैं राजा को अवश्य मार डालूंगा।”
लेकिन जैसे ही उसने वार करने की कोशिश की, उसके पिता की आवाज़ फिर से उसके मन में गूंज उठी।
इस बुद्धिमान कुमार के मन में बार-बार पिता की वह सलाह गूंजती रही, जो उसके हृदय में गहराई से बस गई थी।
अंत में, राजकुमार तलवार म्यान में डालकर गहरी सांस लेने लगा।
राजा चौंककर उठ बैठा। वह बहुत डर गया था। उसकी आँखें बड़ी हो गईं और वह तेजी से सांस ले रहा था।
“बेटे… मैंने अभी एक भयानक सपना देखा। मैंने देखा कि दीघिति कोशल के राजा और रानी मारे गए। उनके पुत्र ने तलवार उठाई और मुझे मारने की कोशिश की। हे बेटे, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि मैंने ऐसा सपना क्यों देखा?”
कुमार दीर्घायु तेजी से खड़ा हुआ। उसने म्यान से तलवार खींच ली और अपने बाएँ हाथ से राजा के बाल पकड़ लिए। उसकी आँखों में क्रोध था और वह दाँत पीसते हुए बोला –
“हे राजा, वह पुत्र मैं हूँ। मेरे माता-पिता की हत्या का बदला लेने का समय आ गया है।”
राजा भय से कांपने लगा। उसने जीवनदान और क्षमा की याचना की।
कुमार दीर्घायु को तुरंत अपने पिता की दी हुई सलाह याद आ गई। उसने तलवार फेंक दी और राजा के सामने हाथ जोड़कर कहा –
“राजन्, मुझे क्षमा करें। मुझसे बहुत बड़ी गलती हुई,” और जीवनदान की याचना की।
अंत में, दोनों ने प्रेमपूर्वक एक-दूसरे को गले लगाया और कभी एक-दूसरे का विरोध न करने की कसम खाई। राजा महल लौटा और अपनी पुत्री का विवाह राजकुमार दीर्घायु से कर दिया।
कालांतर में, राजकुमार को राज्य का उत्तराधिकारी बनाया गया।
बार-बार अपने पिता की सलाह को याद करने और उस पर चलने से ही सब कुछ शुभ हुआ।
इस प्रकार भगवान बुद्ध ने उपदेश को मानकर आज्ञाकारी होने के बारे में स्पष्ट रूप से बताया। बदले की भावना को छोड़कर प्रेम और क्षमा से ही संसार का कल्याण होता है।
लेकिन लाभ और प्रसिद्धि के लोभ में अंधे भिक्षुओं ने इस उपदेश का अर्थ नहीं समझा।
कुछ समय बाद, एक भिक्षु भगवान बुद्ध के पास आया और बिना लज्जा भय के साथ बोला –
“भगवन, आप ध्यान और विश्राम करें! हमने यह झगड़ा केवल प्रसिद्धि पाने के लिए किया है।”
महाकारुणिक भगवान बुद्ध सब कुछ छोड़ कर पारिलेय्य वन में पधारे और शांति से अकेले रहने लगे। उसी वन में एक हाथी भी झुंड से अलग होकर अकेले रहने के लिए आया था। वह हाथी भगवान बुद्ध की सेवा करने लगा।
कोसंबी के श्रद्धालु गृहस्थों को इस घटना से बड़ा दुख हुआ। उन्हें गहरा सदमा लगा।
भगवान बुद्ध के पारिलेय्य वन में चले जाने के कारण वे भिक्षुओं से नाराज हो गए।
गृहस्थों ने भिक्षुओं को भिक्षा न देने का निर्णय लिया।
यद्यपि भिक्षु पूरे कोसंबी नगर में घूमते रहे, लेकिन उन्हें कहीं भी भिक्षा नहीं मिली।
गृहस्थों ने स्पष्ट कहा –
“जब तक आप लोग आपस में मेल-मिलाप नहीं कर लेते और भगवान बुद्ध से क्षमा नहीं मांगते, तब तक हम आपको भिक्षा नहीं देंगे।”
“भगवान बुद्ध की बात न मानने वाले, बड़े भिक्षुओं की अवहेलना करने वाले, और दानदाताओं का मन दुखाने वाले आप जैसे झगड़ालू भिक्षुओं को भोजन देने वाला यहां कोई नहीं है। भगवान बुद्ध भी आप लोगों के कारण ही जंगल में चले गए हैं। अब भी समय है, भगवान बुद्ध के पास जाइए और उनसे क्षमा मांगिए। तभी हम भिक्षा देंगे।”
गृहस्थजन इस निर्णय पर अटल रहे।
भिक्षुओं के अहंकार को गृहस्थों की इस सजा ने तोड़ दिया। वे भयभीत हो गए कि कहीं उनकी प्रतिष्ठा और लाभ नष्ट न हो जाए।
अंततः, उन्होंने मेल-मिलाप करने का निर्णय लिया और भगवान बुद्ध के पास जाकर क्षमा मांगी।
“उन भिक्षुओं ने एकत्रित होकर भगवान बुद्ध के पास जाकर उनसे क्षमा मांगी। महा कारुणिक भगवान बुद्ध ने उन्हें क्षमा कर दिया और इस गाथा के माध्यम से प्रवचन किया।
परे च न विजानन्ति मयमेत्थ यमामसे।
ये च तत्थ विजानन्ति ततो सम्मन्ति मेधगा।
अर्थ: झगड़ा करने वाले लोग यह नहीं समझ पाते कि इससे केवल खुद का ही नुकसान होता है। लेकिन जो लोग समझ जाते हैं कि झगड़े से खुद का विनाश होता है, तो उनका उसी विचार से वह झगड़ा शांत हो जाता है।
पुण्यवान सज्जनों, पुण्यवान बच्चों, जो लोग दंगों में शामिल होते हैं, उन्हें यह याद नहीं रहता कि यह अच्छा है या बुरा, इससे भलाई होगी या हानि। कम से कम उन्हें यह भी याद नहीं रहता कि मैं कौन हूं। फिर वे वही करते हैं जो उनके मन में आता है। वे दूर तक नहीं देख सकते। उस समय शत्रु यही करते हैं कि दंगे भड़काकर और उलझनों में फंसा कर उनका शोषण करते हैं। झगड़ा करने वाले इस तरह उलझ जाते हैं, जैसे सूत का गोला उलझ जाता है। इसका कोई अंत नहीं होता। अंततः वे स्वयं को नष्ट कर लेते हैं। जो व्यक्ति झगड़ों में फंसा रहता है और जिसका हृदय द्वेष से भरा होता है, वह भले-बुरे का फर्क नहीं समझ पाता। वे कुशल धर्म से पतन हो जाते हैं, सद्गुणों से पतन हो जाते हैं। उनके अंदर मानवता ख़त्म हो जाती है। वह जानवरों की तरह जीता है, केवल बदला लेकर खुश होना चाहता है।
ऐसे पतित लोग शील, समाधि और प्रज्ञा की वृद्धि नहीं कर पाते। धर्म-कथा उनके ह्रदय में बैठता नहीं और उन्हें सुख-चैन नहीं मिलता। दोनों सद्गुण से पतन होकर विनाश हो जाते हैं। अंततः उन्हें नरक में जन्म लेकर कष्ट भोगने पड़ते हैं। इसलिए पुण्यवान सज्जनों और पुण्यवान बच्चों, हमें एकता के लिए काम करना चाहिए, शांति के लिए काम करना चाहिए। हमें एकत्र होकर एक मन से काम करना चाहिए। भगवान बुद्ध ने कहा है कि श्रावक-संघ का एकता ही सुख है (सुखा संघस्स सामग्गि)। जो लोग मिल जुलकर एकता में रहते हैं, उन्हें ध्यान – साधना में सुख मिलता है (समग्गानं तपो सुखो)।
यदि कोई व्यक्ति आपस में मिलजुल कर रहने वाले भिक्षुओं का समूह को भेद करता हो तो वह आनंतरिय महापाप है। कल्पों तक आयु वाले नरक में जन्म लेकर इसके कड़वे परिणाम भुगतने पड़ते हैं। लेकिन भगवान बुद्ध ने बताया कि यदि भेद हुए भिक्षु संघ को कोई जोड़ कर एकता लाता है , तो इसके फलस्वरूप एक कल्प तक स्वर्ग में जन्म लेने का महापुण्य कमाता है । इसलिए एकता ही सुख है।
29 Comments
Randeep
Sadu sadu sadu
Dhanshri
Namo buddhay

adarniya bhante ji sadhu Sadhu Sadhu 




bahut dhanyawad bhante ji 


Umesh Kumar Gautam
Sadhu Sadhu Sadhu










Bahut Hi Mangal aur adhbhut katha thi ise padh kar man shant ho gya
Namo Buddhay Bhante Ji
Dhanshri
Namo buddhay
Sadhu Sadhu Sadhu 
Kapil Kumar
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Shreya Wankhade
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Ajay gautam
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