Amritpad 1
Yamaka vagga, Dhammapada Gatha 3
अक्कोच्छि मं अवधि मं – अजिनि मं अहासि मे
ये तं उपनय्हन्ति – वेरं तेसं न सम्मति।
उसने मुझे डांटा, मुझे मारा, मुझे हराया, मेरी चीज लूट ली; ऐसा करके जो सोचते हुये क्रोध करते हैं उनलोगों के मन से वैर का अंत कभी भी नहीं होता है।
Amritpad 2
Yamaka vagga, Dhammapada Gatha 4
अक्कोच्छि मं अवधि मं – अजिनि मं अहासि मे
ये तं न उपनय्हन्ति – वेरं तेसूपसम्मति।
उसने मुझे डांटा, मुझे मारा, मुझे हराया, मेरी चीज लूट ली; ऐसा करके जो नहीं सोचते हैं एवं क्रोध उत्पन्न नहीं करते हैं, उनलोगों के मन से वैर शांत होता है।
Amritpad 3
Yamaka vagga, Dhammapada Gatha 5
न हि वेरेन वेरानि – सम्मन्तीध कुदाचनं
अवेरेन च सम्मन्ति – एस धम्मो सनन्तनो।
इस लोक में कभी भी वैर करने से वैर का अंत नहीं होता है। वैर नहीं करने से ही वैर का अंत होता है। यही लोक का सनातन सत्य है।
Amritpad 4
Yamaka vagga, Dhammapada Gatha 7
सुभानुपस्सिं विहरन्तं – इन्द्रियेसु असंवुतं
भोजनम्हि अमत्तञ्ञु – कुसीतं हीनवीरियं
तं वे पसहति मारो – वातो रुक्खंव दुब्बलं।
जिस प्रकार खुद का मन भड़क जाता है, वैसे मोहित होकर रूप आदि को देखने गया तो; आँख, कान आदि इन्द्रियों को असंयमित किया तो, भोजन के वास्तविक अर्थ को भी भली प्रकार से नहीं जानता है तो, वह आलसी है, हीन उत्साही है। वह पापी मार के वश में ठिक वैसे ही हो जाता है, जैसे दुर्बल वृक्ष तूफान की हवा से गिर जाता है।
Amritpad 5
Yamaka vagga, Dhammapada Gatha 13
यथागारं दुच्छन्नं – वुट्ठी समतिविज्झति
एवं अभावितं चित्तं – रागो समतिविज्झति।
अगर घर का छत सही प्रकार से नहीं बनाया गया है तो वर्षा होते समय उसी छत से पानी गिरता है। साधना के द्वारा भी अगर मन को विकसित नहीं किया है तो उसी मन में विकार-वासना प्रवेश कर जाती है।
Amritpad 6
Yamaka vagga, Dhammapada Gatha 17
इध तप्पति पेच्च तप्पति – पापकारी उभयत्थ तप्पति
पापं मे कतन्ति तप्पति – भिय्यो तप्पति दुग्गतिं गतो।
पाप करने वाला व्यक्ति इस लोक में पछताता है। मरने के बाद परलोक में भी पछताता है। वो दोनों लोकों में पछताता है। अरे…! मैंने पाप किया है.. सोच अत्यधिक पछताता है। दुर्गति में जन्म लेने के बाद वह बहुत पश्चताप करता है।
Amritpad 7
Yamaka vagga, Dhammapada Gatha 18
इध नन्दति पेच्च नन्दति – कतपुञ्ञो उभयत्थ नन्दति
पुञ्ञं मे कतन्ति नन्दति – भिय्यो नन्दति सुग्गतिं गतो।
पुण्य करने वाला व्यक्ति इस लोक में खुश होता है। मरने के बाद परलोक में भी खुश होता है। वह दोनों लोकों में खुश होता है। अरे…! मैंने पुण्य कर्म किया है.. सोच अत्यधिक खुश होता है। सुगति में जन्म लेने के बाद वह बहुत खुश होता है।
Amritpad 8
Chitta vagga, Dhammapada Gatha 33
फन्दनं चपलं चित्तं – दुरक्खं दुन्निवारयं
उजुं करोति मेधावी – उसुकारोव तेजनं।
ये मन बड़ा ही चंचल है, चपल है। इसे अपने वश में रखना बहुत ही मुश्किल है। मन को पाप से बचाना बहुत ही कठिन है। लेकिन ज्ञानी व्यक्ति उस मन को वैसे ही सीधा करता है, जैसे तीर बनाने वाला व्यक्ति तीर को सीधा करता है।
Amritpad 9
Chitta vagga, Dhammapada Gatha 35
दुन्निग्गहस्स लहुनो – यत्थकामनिपातिनो
चित्तस्स दमथो साधु – चित्तं दन्तं सुखावहं।
अपमान करके भी इस मन को सुधारना बहुत ही कठिन है। पल भर में बदल जाता है। मन-पसंदित चीजों के प्रति खींचे चला जाता है। वैसे मन को सुधारना बहुत ही उत्तम है। संयंमित मन से बहुत बड़ा सुख पा सकता है।
Amritpad 10
Chitta vagga, Dhammapada Gatha 41
अचिरं वतयं कायो – पठविं अधिसेस्सति
छुद्धो अपेतविञ्ञाणो – निरत्थंव कलिंगरं।
सचमुच में यह शरीर उतने समय तक नहीं रहता है। प्राण निकल जाने के बाद यह शरीर वैसे ही बेकार हो जाती है, जैसे व्यर्थ लकड़ी कोई काम में नहीं आती है।
Amritpad 11
Chitta vagga, Dhammapada Gatha 43
न तं माता पिता कयिरा – अञ्ञे वापि च ञातका
सम्मा पणिहितं चित्तं – सेय्यसो नं ततो करे।
यह काम अपनी माँ करके नहीं देती है। अपना पिता करके नहीं देता है। दूसरा कोई परिवार भी नहीं करता है। वो कार्य है – अच्छे कार्य करके धर्म में मन को स्थिर रखना। उसी के कारण वह उत्तम इंसान बन जाता है।
Amritpad 12
Puppha vagga, Dhammapada Gatha 46
फेणूपमं कायमिमं विदित्वा – मरीचिधम्मं अभिसम्बुधानो
छेत्वान मारस्स पपुप्फकानि – अदस्सनं मच्चुराजस्स गच्छे।
इस शरीर को निस्सार फेन के समान समझना चाहिये। यह जीवन मरीचिका के समान है। इसे भलीभांति बोध करना चाहिये। पापी-मार के माया युक्त क्लेश बंधन रूपी फुलों की माला है, उसे तोड़कर उस निर्वाण मार्ग की ओर जाना चाहिये, जिस निर्वाण को पापी मार के द्वारा भी देखना असंभव है।
Amritpad 13
Puppha vagga, Dhammapada Gatha 50
न परेसं विलोमानि – न परेसं कताकतं
अत्तनोव अवेक्खेय्य – कतानि अकतानि च।
दूसरों की वाणियों में दोष ढूँढ़ने से कोई लाभ नहीं। दूसरों के किये और ना किये को भी ढूँढने से कोई लाभ नहीं। खुद के बारे में देख लिया तो पर्याप्त है। स्वयं क्या करता है तथा क्या नहीं करता है, उसे देख लिया तो पर्याप्त है।
Amritpad 14
Puppha vagga, Dhammapada Gatha 56
अप्पमत्तो अयं गन्धो – यायं तगरचन्दनी
यो च सीलवतं गन्धो – वाति देवेसु उत्तमो।
चन्दन और चंपा की सुगन्ध तो बहुत अल्प है। लेकिन शीलवानों के गुणों की सुगन्ध तो उससे उत्तम है। उनके गुणों की सुगन्ध देवलोक तक फैल जाती है।
Amritpad 15
Bala vagga, Dhammapada Gatha 61
चरञ्चे नाधिगच्छेय्य – सेय्यं सदिसमत्तनो
एकचरियं दल्हं कयिरा – नत्थि बाले सहायता।
किसी का आश्रय करते समय जो शील, समाधि प्रज्ञा में अपने से श्रेष्ठ है, उसी का आश्रय करना चाहिये या अपने से समान ज्ञान वाले लोगों का आश्रय करना चाहिये। अगर वैसा व्यक्ति भी ना मिले तो दृढ़ निश्चय कर अकेले ही रहना चाहिये। पापी असत्पुरूषों की संगति किसी भी हालत में नहीं करनी चाहिये।
Amritpad 16
Bala vagga, Dhammapada Gatha 62
पुत्ता मत्थि धनम्मत्थि – इति बालो विहञ्ञति
अत्ता हि अत्तनो नत्थि – कुतो पुत्ता कुतो धनं।
अज्ञानी लोग इस विचार में डूबे रहते हैं कि मेरे पास पुत्र है, मेरे पास धन-संपत्ति है। परंतु जो स्वयं अपने आप का भी नहीं है (अर्थात् जब यह शरीर मृत्यु को प्राप्त होता है तो खुद का शरीर को भी जला दिया जाता है) तो कहाँ से पुत्र और कहाँ से धन होगा?
Amritpad 17
Bala vagga, Dhammapada Gatha 64
यावजीवम्पि चे बालो – पण्डितं पयिरुपासति
न सो धम्मं विजानाति – दब्बी सूपरसं यथा ।
ज्ञान से मनन न करने वाला व्यक्ति जीवन भर भी ज्ञानियों की संगती करे फिर भी वे ज्ञान को समझ नहीं पाते हैं, जैसे चम्मच सूप में होने के बावजूद भी सूप के रस को समझ नहीं पाती है।
Amritpad 18
Bala vagga, Dhammapada Gatha 65
मुहुत्तम्पि चे विञ्ञू – पण्डितं पयिरुपासति
खीप्पं धम्मं विजानाति – जीव्हा सूपरसं यथा ।
ज्ञानी व्यक्ति गुरु लोगों की संगती केवल थोड़े ही पल के लिए करते हैं लेकिन वे ज्ञान को वैसे ही तुरंत समझ जाते हैं जैसे जीभ सूप के रस को तुरंत समझ जाती है।
Amritpad 19
Bala vagga, Dhammapada Gatha 67
न तं कम्मं कतं साधु – यं कत्वा अनुतप्पति
यस्स अस्सुमुखो रोदं – विपाकं पटिसेवति
वैसे पाप कर्म को करना अच्छा नहीं है, जिसे करने के बाद पश्चाताप करना पड़े और जिसके फल को आंसू बहाते हुये रो-रोकर दुख भोगना पड़े।
Amritpad 20
Bala vagga, Dhammapada Gatha 69
मधुवा मञ्ञति बालो – याव पापं न पच्चति
यदा च पच्चति पापं – अथ बालो दुक्खं निगच्छति।
पापी व्यक्ति के द्वारा किया हुआ पाप का फल जब तक उसे नहीं मिल जाता, तब तक वह उस पाप को शहद के समान मानता है। लेकिन जिस दिन से पाप का फल मिलना शुरु हो जाता है, तब वह अज्ञानी व्यक्ति दुखों के सागर में डूब जाता है।
Amritpad 21
Pandita vagga, Dhammapada Gatha 76
निधीनंव पवत्तारं – यं पस्से वज्जदस्सिनं
निग्गय्हवादिं मेधाविं – तादिसं पण्डितं भजे
तादिसं भजमानस्स – सेय्यो होति न पापियो।
खजाने का स्थान दिखाने वाले मित्र की तरह ज्ञानी व्यक्ति अपने लोगों के गलती को देखने पर कभी-कभी कठोर वाणी से भी अनुशासन कर सकते हैं। ऐसे ज्ञानी सत्पुरूषों की ही संगति करनी चाहिये। वैसे ज्ञानी लोगों की संगति करने से सदा कल्याण ही होता है, अमंगल कभी नहीं होता।
Amritpad 22
Pandita vagga, Dhammapada Gatha 77
ओवदेय्यानुसासेय्य – असब्भा च निवारये
सतं हि सो पियो होति – असतं होति अप्पियो।
ज्ञानी कल्याण मित्र गलतियों से छुटकारा पाने के लिये उपदेश देते हैं। सन्मार्ग पर चलने के लिये अनुशासन करते हैं। पाप से बचाते हैं। वैसा कल्याण मित्र ज्ञानी, सत्पुरूषों को बहुत प्रिय लगता है परन्तु असत्पुरूष को नहीं।
Amritpad 23
Pandita vagga, Dhammapada Gatha 81
सेलो यथा एकघनो – वातेन न समीरति
एवं निन्दापसंसासु – न समिञ्जन्ति पण्डिता।
जैसे विशाल पर्वत प्रचंड वायु के प्रहार से भी कम्पित नहीं होता है, वैसे ही ज्ञानी सत्पुरूष निंदा-प्रशंसा के मिलने पर विचलित नहीं होते हैं।
Amritpad 24
Arhanta vagga, Dhammapada Gatha 99
रमणीयानि अरञ्ञानि – यत्थ न रमती जनो
वीतरागा रमिस्सन्ति – न ते कामगवेसिनो।
वन बहुत ही सुन्दर होता है। लेकिन वैसे वन को कामभोगी लोग पसंद नहीं करते हैं। परंतु वैरागी मुनि लोग वैसे वन को बहुत चाहते हैं क्योंकि वे मुक्ति को ढूँढ़ते हैं, कामभोगों को नहीं।
Amritpad 25
Sahassa vagga, Dhammapada Gatha 100
सहस्समपि चे वाचा – अनत्थपदसंहिता
एकं अत्थपदं सेय्यो – यं सुत्वा उपसम्मति।
इस लोक और परलोक के अनर्थ हेतु हजारों वचन भी बोलता है तो उससे कोई लाभ नहीं। लेकिन ज्ञानभरे अर्थयुक्त कम से कम एक वचन भी सुनने से जीवन शांत होता है तो वो वचन ही श्रेष्ठ है।
Amritpad 26
Sahassa vagga, Dhammapada Gatha 103
यो सहस्सं सहस्सेन – संगामे मानुसे जिने
एक जेय्य अत्तानं – स वे संगामजुत्तमो।
जो कोई युद्ध में दस लाख मनुष्यों को भी हराकर विजय हासिल किया हो तब भी वह वास्तवकि रूप से विजयी नहीं होता है। लेकिन जो कोई इस मन के विकार-युद्ध से अपने आप को जीत लिया है तो, सचमुच में पहले जीते हुये सभी युद्धों से बढ़कर वो व्यक्ति उत्तम होता है।
Amritpad 27
Pap vagga, Dhammapada Gatha 121
मावमञ्ञेथ पापस्स – न मन्तं आगमिस्सति
उदबिन्दुनिपातेन – उदकुम्भोपि पूरति
पूरति बालो पापस्स – थोकं थोकम्पि आचिनं।
‘अरे, यह तो बहुत छोटा पाप है, खुद को इस पाप का फल नहीं मिलेगा’ सोच उसे अनदेखा मत करो! जैसे बूंद-बूंद पानी से भी घड़ा भर जाता है। वैसे ही अज्ञानी व्यक्ति के द्वारा भी थोड़ा-थोड़ा ही पाप करने से धीरे-धीरे वो पाप जमा होकर जीवन पाप से भर जाता है।
Amritpad 28
Pap vagga, Dhammapada Gatha 127
न अन्तलिक्खे न समुद्दमज्झे – न पब्बतानं विवरं पविस्स
न विज्जती सो जगतिप्पदेसो – यत्थट्ठितो मुच्चेय्य पापकम्मा।
जिस जगह पर छिप कर पाप के फल से बचा जा सके, वैसी जगह अंतरिक्ष में भी नहीं है, समुद्र के बीच में भी नहीं है, पर्वत की गुफाओं में भी नहीं है। वैसी जगह लोक में कहीं भी नहीं है।
Amritpad 29
Danda vagga, Dhammapada Gatha 129
सब्बे तसन्ति दण्डस्स – सब्बे भायन्ति मच्चुनो
अत्तानं उपमं कत्वा – न हनेय्य न घातये।
सभी प्राणी दण्ड से डरते हैं। मृत्यु से सभी भयभीत होते हैं। इसलिये सबको अपने जैसे समझकर किसी भी प्राणी को मत मारो। दूसरों के द्वारा मरवावो भी मत।
Amritpad 30
Danda vagga, Dhammapada Gatha 135
यथा दण्डेन गोपालो – गावो पाचेति गोचरं
एवं जरा च मच्चु च – आयुं पाचेन्ति पाणिनं।
जिस प्रकार ग्वाला लाठी से पीटते-पीटते गायों को घास खाने के लिये लेकर जाता है। ठिक उसी प्रकार बुढ़ापा एवं मृत्यु प्राणियों के आयु को समाप्त कर देती है।
Amritpad 31
Jara vagga, Dhammapada Gatha 148
परिजिण्णमिदं रूपं – रोगनिड्ढं पभंगुरं
भिज्जति पूतिसन्देहो – मरणन्तं हि जीवितं।
चार महाभूत से बना यह शरीर बूढ़ा होकर नष्ट हो जाता है। अनेक प्रकार के रोगों का घर जैसा है। क्षणभंगुर है, तुरंत टूट-फूटकर नष्ट हो जाता है। शरीर के नौ द्वारों से निरंतर गंदगी निकलती है। ये जीवन नष्ट होकर मृत्यु से समाप्त हो जाता है।
Amritpad 32
Jara vagga, Dhammapada Gatha 150
अट्ठीनं नगरं कतं – मंसलोहितलेपनं
यत्थ जरा च मच्चु च – मानो मक्खो च ओहितो।
यह शरीर हड्डी, मांस और खून से आलेपित कर बनाया हुआ एक नगर के समान है। यह शरीर बुढ़ापा और मृत्यु को प्राप्त होता है। अहंकार भी इसी शरीर में उत्पन्न होता है। दूसरों के गुण को मिटाने की बुरी आदत भी इसी शरीर में उत्पन्न होता है।
Amritpad 33
Jara vagga, Dhammapada Gatha 151
जीरन्ति वे राजरथा सुचित्ता – अथो सरीरम्पि जरं उपेति
सतं च धम्मो न जरं उपेति – सन्तो हवे सब्भि पवेदयन्ति ।
विचित्र प्रकार से सजाया हुआ राजकिय रथ समय के साथ टूट कर समाप्त हो जाता है। ठिक वैसे ही अनेक प्रकार से इस शरीर को भी चाहे जितना भी सजाये, पर बुढ़ापा एवं मृत्यु के साथ नष्ट हो जाती है। लेकिन सत्पुरूषों का गुण कभी नष्ट नहीं होता है। सचमुच में यह बात सत्पुरूषों को शांत मुनि लोग बताते हैं।
Amritpad 34
Atta vagga, Dhammapada Gatha 163
सुकरानि असाधूनि – अत्तनो अहितानि च
यं वे हितञ्च साधुं च – तं वे परमदुक्करं।
उन गलत कर्मों को करना बहुत ही आसान होता है जो अपने अहित एवं अमंगल के लिए होता है। लेकिन जो चीज खुद के हित के लिये होता है, सुख के लिये होता है, वो कुशल कर्म करना बहुत ही मुश्किल है।
Amritpad 35
Loka vagga, Dhammapada Gatha 170
यथा पुब्बुलकं पस्से – यथा पस्से मरीचिकं
एवं लोकं अवेक्खन्तं – मच्चुराजा न पस्सति ।
तुरंत फूट जाने वाले पानी के बुलबुले के समान, पल भर में गायब हो जाने वाली मृगमारीचिका के समान इस लोक को देखने पर वो मुक्त हो जाता है। वह पापीमार को भी नहीं दिखता है।
Amritpad 36
Loka vagga, Dhammapada Gatha 174
अन्धभूतो अयं लोको – तनुकेत्थ विपस्सति
सकुन्तो जालमुत्तोव – अप्पो सग्गाय गच्छति।
इस लोक के प्राणी अज्ञानता नाम के अंधभाव से अंधे हो गये है। केवल स्वल्प लोग ही यथार्थ को देख पाते हैं। जिस प्रकार शिकरी के जाल से केवल कुछ ही पक्षी मुक्त हो पाते हैं, उसी प्रकार स्वर्ग में बहुत थोड़े लोग ही जन्म लेते हैं।
Amritpad 37
Loka vagga, Dhammapada Gatha 176
एकं धम्मं अतीतस्स – मुसावादिस्स जन्तुनो
वितिण्णपरलोकस्स – नत्थि पापं अकारियं।
सत्य नाम के एक गुण को छोड़कर, झूठ बोलने वालों को परलोक का कोई डर रह नहीं जाता। इस कारण वो कोई भी पाप कर सकता है।
(अर्थात् जो सत्य नहीं बोलते है। जिन्हें परलोक का भय नहीं होता है। पाप पर विश्वास नहीं करते हैं। वे झूठ बोलने में डरते नहीं। इसलिए भगवान बुद्ध जी बताते हैं कि वैसा व्यक्ति को कोई भी पाप कर सकता है। क्योंकि वैसा व्यक्ति बड़ा से बड़ा पाप करके उससे बचने के लिए झूठ बोल देता है।)
Amritpad 38
Loka vagga, Dhammapada Gatha 177
न वे कदरिया देवलोकं वजन्ति – बाला हवे नप्पसंसन्ति दानं
धीरो च दानं अनुमोदमानो – तेनेव सो होति सुखी परत्थ।
कंजूस व्यक्ति कभी भी देवलोक में नहीं जाता। असत्पुरूष लोग कभी भी दान की प्रशंसा नहीं करते। किसी के दान को देख खुश हो अनुमोदन भी ज्ञानी प्रज्ञावान ही होता है और परलोक में सुख पाने के लिये वही कारण उसे उपकार होता है।
Amritpad 39
Buddha vagga, Dhammapada Gatha 182
किच्छो मनुस्सपटिलाभो – किच्छं मच्चान जीवितं
किच्छं सद्धम्मसवनं – किच्छो बुद्धानं उप्पादो।
मनुष्य जन्म को पाना बहुत दुर्लभ है। उसी मानव जीवन को बिताने में भी बहुत कठिनाइयाँ उत्पन्न होती है। भगवान बुद्ध के पवित्र धर्म को सुनने का मौका मिलना भी बहुत दुर्लभ है। इन सबसे ज्यादा भगवान बुद्धों का जन्म होना दुर्लभ है।
Amritpad 40
Buddha vagga, Dhammapada Gatha 184
खन्ती परमं तपो तितिक्खा – निब्बाणं परमं वदन्ति बुद्धा
न हि पब्बजितो परूपघाती – समणो होति परं विहेठयन्तो।
सहनशीलता परम तप है। बुद्ध लोग निर्वाण को उत्तम बताते हैं। जो भिक्षु दूसरों को नष्ट करता है तो वह भिक्षु नहीं। दूसरों को हिंसा करने वाला श्रमण नहीं होता।
(अर्थात् सहनशीलता को परम तपस्या इसलिए बताई गई है क्योंकि बिना सहन किए किसी भी क्षेत्र में सफलता नहीं पाई जा सकती। हर क्षेत्र में कठिनाइयाँ तो आती ही है, लेकिन जो धैर्य नहीं रखता, वह सफल नहीं हो पाता। निर्वाण को उत्तम बताया गया है क्योंकि निर्वाण पाने के बाद वह जन्म-मृत्यु के संसार से मुक्त हो जाता है एवं सभी दुखों का अंत कर देता है। जो कोई श्रमण दूसरों को कष्ट देता है या सताता है या हिंसा करता है तो वह सच्चा श्रमण नहीं कहलाता)
Amritpad 41
Buddha vagga, Dhammapada Gatha 186
न कहापणवस्सेन – तित्ति कामेसु विज्जति
अप्पस्सादा दुखा कामा – इति विञ्ञाय पण्डितो।
स्वर्ण मुद्राओं (सोने) की वर्षा हो जाने पर भी एक व्यक्ति का मन इस पंचकाम से भरता नहीं है। इस पंचकाम में आस्वाद अर्थात् मजा बहुत ही स्वल्प है लेकिन दुख बहुत है। बुद्धिमान व्यक्ति इस सत्य को समझ जाता है।
Amritpad 42
Sukha vagga, Dhammapada Gatha 207
बालसंगतचारीहि – दीघमद्धान सोचति
दुक्खो बालेहि संवासो – अमित्तेनेव सब्बदा
धीरो च सुखसंवासो – ञातीनंव समागमो।
पाप करने से भय न मानने वाले असत्पुरूषों के साथ एक साथ जीवन बिताने गया तो बहुत समय तक शोक करना पड़ता है। हमेशा शत्रुओं के साथ रहना जैसा वैसे बुरे लोगों के साथ जीवन बिताना तो सचमुच में दुख है। लेकिन ज्ञानियों के आश्रय में रहना तो अत्यंत सुखकर है, मानो अपने परिवार के साथ रह रहा हो।
Amritpad 43
Piya vagga, Dhammapada Gatha 210
मा पियेहि समागंछि – अप्पियेहि कुदाचनं
पियानं अदस्सनं दुक्खं – अप्पियानंच दस्सनं
प्रिय लोगों के साथ सीमा से ज्यादा बंधन मत रखो। अप्रिय लोगों के साथ मित्रत्व बिल्कुल भी नहीं चाहिये। प्रिय लोगों में आसक्त हुये तो वे लोग नहीं दिखने के कारण दुख उत्पन्न होगा और अप्रिय लोग दिखने के कारण दुख उत्पन्न होगा।
(अर्थात् जब प्रिय लोगों के साथ सीमा से ज्यादा लगाव, बंधन होता है तो एक समय आता है जब उससे जुदा होना पड़ता है। अगर उस समय लगाव या बंधन ज्यादा होता है तो जुदाई को सहन नहीं कर पाता है एवं बहुत दुखों का सामना करना पड़ता है। नापसंद लोगों का मिलन होने पर तो दुख होता ही है)
Amritpad 44
Piya vagga, Dhammapada Gatha 213
पेमतो जायती सोको – पेमतो जायती भयं
पेमतो विप्पमुत्तस्स – नत्थि सोको कुतो भयं।
प्रेम से ही शोक उत्पन्न होता है। प्रेम से ही भय उत्पन्न होता है। लेकिन जो प्रेम से मुक्त हो जाते हैं, उन्हें शोक उत्पन्न नहीं होता है, भय कहाँ से होगा।
Amritpad 45
Kodha vagga, Dhammapada Gatha 223
अक्कोधेन जिने कोधं – असाधुं साधुना जिने
जिने कदरियं दानेन – सच्चेन अलिकवादिनं।
क्रोध को क्रोध नहीं करने से ही जीतना है। बुराई को अच्छाई से जीतना है। लोभ को दान से जीतना है। झूठ बोलने वाले व्यक्ति को सत्य वचन से ही जीतना है।
(अर्थात् जब कोई व्यक्ति गुस्से में है और गाली दे रहा है या लड़ने पर तुला है। वैसे स्थिती में अगर दूसरा व्यक्ति भी गुस्सा करने गया या गाली देने गया तो वहाँ पर लड़ाई-झगड़ा बढ़ते ही जायेगा, समाप्त नहीं होगा। परंतु दूसरा व्यक्ति गुस्सा नहीं करता है तो वैसी स्थिती में वहाँ पर सामना वाला भी दो-चार बोलने के बाद शांत हो जाता है)
Amritpad 46
Kodha vagga, Dhammapada Gatha 227
पोराणमेतं अतुल – नेतं अज्जतनामिव
निन्दन्ति तुण्हीमासीनं – निन्दन्ति बहुभाणिनं
मितभाणिम्पि निन्दन्ति – नत्थि लोके अनिन्दितो।
पुण्यवान अतुल! ये केवल आज नहीं, बहुत पहले से वैसा ही है अर्थात् शांत रहने पर भी निंदा मिलती है। बहुत बोलने पर भी निंदा मिलती है। सीमायुक्त बातें करने पर भी निंदा मिलती है। इस संसार में निन्दा न पाया हुआ कोई भी नहीं है।
Amritpad 47
Mala vagga, Dhammapada Gatha 251
नत्थि रागसमो अग्गि – नत्थि दोससमो गहो
नत्थि मोहसमं जालं – नत्थि तण्हासमा नदी।
राग (बंधन, वासना) के समान दूसरी कोई अग्नि नहीं है। वैर, नफरत के समान दूसरा कोई जकड़न नहीं है। मोह के समान दूसरा कोई जाल नहीं है एवं तृष्णा के समान दूसरी कोई नदी भी नहीं है।
Amritpad 48
Magga vagga, Dhammapada Gatha 273
मग्गानट्ठंगिको सेट्ठो – सच्चानं चतुरो पदा
विरागो सेट्ठो धम्मानं – द्विपदानंच चक्खुमा।
मुक्ति के लिए मार्गों में आर्य अष्टांगिक मार्ग सर्वश्रेष्ठ है । परम सत्य में श्रेष्ठ भगवान बुद्ध के द्वारा बताया गया चार आर्य सत्य है । धर्मों में श्रेष्ठ वैरागी निर्वाण होता है एवं दो पैरों में सर्वश्रेष्ठ ज्ञान की चक्षु वाले तथागत भगवान बुद्ध होते हैं।
Amritpad 49
Pakinnaka vagga, Dhammapada Gatha 296
सुप्पबुद्धं पबुज्झन्ति – सदा गोतमसावका
येसं दिवा च रत्तो च – निच्चं बुद्धगता सति।
जो कोई दिन में भी और रात्रि में भी निरंतर बुद्धानुस्सति में लगे रहता है तो गौतम भगवान बुद्ध का वह शिष्य सदा सुख से ही जागता है।
Amritpad 50
Niraya vagga, Dhammapada Gatha 306
अभूतवादी निरयं उपेति – यो चापि कत्वा न करोमीति चाह
उभोपि ते पेच्च समा भवन्ति – निहीनकम्मा मनुजा परत्थ।
दूसरों की झूठी निन्दा करने वाले लोगों को नरक में ही जन्म लेना पड़ता है। स्वयं कोई पाप करके बाद में कहता है कि मैंने कोई पाप नहीं किया है; ये भी नरक में ही जन्म लेता है। नीच क्रिया से युक्त ये दोनों व्यक्ति मरने के बाद समान रूप से नरक में ही जन्म लेते है।
Amritpad 51
Naga vagga, Dhammapada Gatha 321
दन्तं नयन्ति समितिं – दन्तं राजाभिरूहति
दन्तो सेट्ठो मनुस्सेसु – योतिवाक्यं तितिक्खति।
अगर जानवर दमन (संयमित) हो चुका है तो उसे भारी भीड़ के बीच से भी ले जा सकता है। राजा भी दमन हुये हस्ति, अश्व या किसी जानवर के पीठ पर ही सवारी करता है। जो कोई दूसरों के गाली, अपशब्द, कठोर वाणी को सहन करता है तो वह मनुष्यों में संयंमित हुआ श्रेष्ठ व्यक्ति है।
Amritpad 52
Naga vagga, Dhammapada Gatha 331
अत्थम्हि जातम्हि सुखा सहाया – तुट्ठी सुखा या इतरीतरेन
पुञ्ञं सुखं जीवितसंखयम्हि – सब्बस्स दुक्खस्स सुखं पहाणं।
उपकार की जरूरत पड़ने पर मदद के लिये सामने आने वाला मित्र मिलना सुखकर है। मिले चीजों से संतुष्ट होना सुखकर है। जीवन के समाप्त होने पर अर्थात् मृत्यु के समय अपने पास पुण्य का भंडार होना सुख के लिये होता है। मन की सभी गंदगी को नष्ट कर दुखों का अंत करना भी सुखकर है ।
Amritpad 53
Naga vagga, Dhammapada Gatha 333
सुखं याव जरा सीलं – सुखा सद्धा पतिट्ठिता
सुखो पञ्ञाय पटिलाभो – पापानं अकरणं सुखं।
बूढ़ा होने तक अर्थात् अंत समय तक शील-सदाचार का पालन करना सुखकर है। त्रिशरण के प्रति अटल श्रद्धा में स्थिर होना सुखकर है। चार आर्य सत्यों का बोध कर प्रज्ञा को पाना भी सुखकर है। पाप कर्म को न करना सुखकर है।
(अर्थात् तथागत जी यहाँ पर बताते हैं कि मरते समय इंसान कुछ भी लेकर नहीं जाता है, लेकिन अगर वह शीलों का पालन करता है तो वह उस पुण्य को मरने के पश्चात् भी लेकर जाता है। और जिसे भगवान बुद्ध जी के प्रति एवं उनके द्वारा बताये गये ज्ञान के प्रति एवं उनके मार्ग पर चलकर जो भवसागर से तर गये उन भिक्षसंघ के प्रति भी बोध के साथ अटल श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है तो वह कभी भी किसी माया जाल में नहीं फंसता। उसके हाथों से पाप भी नहीं होता। और जो चार आर्य सत्यों का बोध कर लेता है, वह श्रोतापन्न हो जाता है)
Amritpad 54
Brahamana vagga, Dhammapada Gatha 392
यम्हा धम्मं विजानेय्य – सम्मासम्बुद्धदेसितं
सक्कच्चं तं नमस्सेय्य – अग्गिहुत्तंव ब्राह्मणो।
भगवान बुद्ध जी के द्वारा बताया गया निर्मल ज्ञान को स्वयं जिस किसी व्यक्ति से सीख लिया तो, खुद को ज्ञान सिखाये उस ज्ञानी कल्याणमित्र को वह हमेशा वैसे ही वन्दना करता है, जैसे ब्राह्मण अग्नि को पूजा करता है।