पाली भाषा में ‘वेसाख’ का अर्थ वैसाख माह से है। संस्कृत में इसे ‘वैशाख’ कहा जाता है और सिंहल भाषा में इसे ‘वेसक’ कहा जाता है। वर्तमान में यह नाम ‘वैसाख’ के रूप में अत्यंत प्रसिद्ध है। यह उस महीने का नाम है। उसी महीने में आने वाली पूर्णिमा को भी ‘वैसाख बुद्ध पूर्णिमा’ कहा जाता है। इसका अर्थ कोई रूप, परिवर्तन, विशेषता या भिन्नता नहीं है।

भारत में वैसाख महीना ग्रीष्मकाल से संबंधित है, यानी यह गर्मी के मौसम में आता है। आज से लगभग ढाई हजार साल पहले भारत के गया क्षेत्र में, विशेष रूप से उरुवेला नामक जनपद एक घने जंगलों से ढका क्षेत्र था। उरुवेला वन क्षेत्र के बीचोंबीच एक बहुत ही पवित्र नदी बहती थी। इस नदी को नीरांजना नदी कहा जाता है।

उस नदी के एक स्थान पर फैली हुई विस्तृत रेत पर और पास ही स्थित पर्वत श्रृंखला की एक गुफा में निवास करते हुए, उस क्षेत्र में भ्रमण करते हुए कठोर तपस्या में लीन एक महा श्रमण (बोधिसत्व सिद्धार्थ) निवास कर रहे थे। लगभग छह वर्षों तक उन्होंने वहाँ रहकर जो भीषण और कठिन तपस्या किए, उन्हें आज सोचने मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। यह इतना असाधारण है कि समझ पाना भी कठिन है!

लगभग छ: फुट की ऊँचाई वाले वह महाश्रमण जब इस जगह पर आए थे, तो वह अत्यंत सुन्दर एवं मनोहर रूप वाले थे। उनका शरीर एक महान तेज से चमकता हुआ सुनहरा था। लेकिन घोर तपस्या के कारण उनका शरीर काले रंग में बदल गया था। सिर के बाल उखाड़ने के कारण उनका सर ऐसा दिखता था मानो सूखी गोल लौकी हो। उभरी हुई नसें और अत्यंत पतला शरीर लिए हुए, जब वे नदी तट की रेत पर चलते थे, तो ऐसा प्रतीत होता था मानो कोई हड्डियों का ढांचा चल रहा हो। शरीर पर माँस का कोई चिन्ह दिखाई नहीं देता था। उनकी आँखें गहराई में धँसी हुई थीं, फिर भी वे गहराई से चमक रही थीं, एक अद्भुत ज्योति से जगमगा रही थीं।

किंतु उरुवेला वन क्षेत्र के निवासी यह नहीं जानते थे कि यह तपस्वी उस शाक्यराजा सुद्धोधन महाराज के पुत्र हैं, जो क्षत्रिय महान राजवंश में चक्रवर्ती योग से जन्मे राजकुमार थे। कोई नहीं जानता था कि अंधकार में चमकते दीपक के लौ की भाँति, यशोधरा नामक परम रूपवती और सम्माननीय स्त्री का पति ये महा श्रमण है, जिसकी सुंदरता अंधकार में भी दमकती थी। किसी को यह भी ज्ञात न था कि उनके एक सुनहरे सुंदर पुत्र राहुल का जन्म हो चुका है और यह कि वह समस्त सांसारिक सुखों को त्याग कर मोक्ष की खोज में लगे हुए हैं।

उनके आसपास पाँच अन्य श्रमण भी आकर टिक गए, जो उनके कठोर तपस्याओं को गंभीरता से देख रहे थे। ये पाँच कौन थे? किस स्थान से आए थे? यह किसी सेनानी के ग्रामवासी को ज्ञात नहीं था। वे बस इतना जानते थे कि इस क्षेत्र में कठोर तपस्या में लगे श्रमण घूमते रहते हैं।

ऐसा प्रतीत होता था कि वह महा-श्रमण कई दिनों से अन्न ग्रहण नहीं कर रहे थे। ध्यानावस्था में बैठे हुए वह इतनी देर तक ऊपर साँस लेकर घंटो तक नीचे नहीं छोड़ते कि किसी के लिए उसे समझ पाना भी संभव नहीं था। वृक्ष की छाया में, रेत पर पद्मासन में बैठे, शरीर को सीधा रखकर, आँखें बंद कर, हड्डियों का एक ढांचा बन चुके उस श्रमण को देखकर कौन चकित नहीं होता? अगले ही क्षण क्या वह मर नहीं जाएगा? या चेतना खोकर गिर नहीं पड़ेगा? उसे क्या हो रहा है, कोई भी जानने वाला वहाँ नहीं था।

अत्यधिक धूल से ढका शरीर लिए, निरंजरा नदी के किनारे की रेत पर दूर की ओर देखते हुए बैठे उस तपस्वी के मन में साधारण देवों या मनुष्यों जैसे विचार उठना असंभव था। शरीर की अत्यधिक दुर्बलता के कारण वह कभी-कभी गिर पड़ता। फिर से उठकर बैठता, और फिर से गिर जाता। जब वह यूँ ही ज़मीन पर पड़ा होता, तब भी वह किसी गहरे चिंतन में लीन रहता। देवता भी समय-समय पर आकर उससे संवाद करते। वे उनसे विनती करते कि वह उपवास करना छोड़ दे।

एक बार एक शक्तिशाली महान देवता उसके पास आया और झूठी करुणा के साथ उससे अनुरोध करने लगा कि वह इस भयंकर तपस्या को छोड़ दे और एक सामान्य जीवन जिए। उसने ज़ोर देकर कहा कि आँख, कान, नाक, जीभ, शरीर और मन – ये छ: आंतरिक इंद्रियाँ तथा रूप, शब्द, गंध, स्वाद, स्पर्श और विचार – ये छ: बाहरी इंद्रियाँ सभी उसकी शक्ति के अधीन हैं। वह कहने लगा कि इन सबको आकाश में घूमते किसी अदृश्य बंधन से बाँध रखा गया है। इस कारण से भवचक्र से मुक्त होने का प्रयास व्यर्थ है, और इसमें कोई सफलता नहीं मिलने वाली। अंततः केवल मृत्यु ही प्राप्त होगी, इसलिए इस प्रयास को त्याग देने की सलाह उसने बार-बार दी।

किन्तु उस महा-श्रमण ने यह कहा कि उसका यह प्रयास सत्य के लिए अर्पित जीवन का एक बलिदान है, इसलिए जब तक जीवन है, वह बिना विचलित हुए इस साधना में लगा रहेगा। उसने यह भी कहा कि उसका पराक्रम और संकल्प इतना सच्चा और प्रबल है कि उसके शरीर से टकराकर बहने वाली हवा इस बहती निरंजरा नदी के जल की धारा तक को सुखा सकती है।

कई वर्षों से कठोर तपस्या में लगे उस महा-श्रमण ने एक दिन अपने अब तक के निरंतर प्रयासों का पुनरावलोकन किया। उसने सोचा: “संसार से मुक्ति पाने के लिए इस लोक में जो भी कठोर तपस्याएं कोई कर सकता है, वे सब मैंने एक भी छोड़े बिना, पूरी निष्ठा से और अत्यंत उग्र रूप से कर डालीं। फिर भी, क्या अब इन तपस्याओं को जारी रखना व्यर्थ नहीं है? इनसे मुझे वह निर्मल शांति नहीं मिली जिसकी मैं आकांक्षा करता हूँ। अतः अब किसी अन्य मार्ग की खोज करना ही उचित होगा।”

तभी उन्हें एक बहुत ही पुरानी स्मृति याद आई – बचपन की एक घटना, जब उसने सांस के आने-जाने को लेकर (आनापानसति) मन को एकाग्र कर ध्यान किया था। यह उस समय की बात थी जब उसके पिता के हल चलाने के पर्व पर वह एक जामुन वृक्ष की छाया में बैठा था और सहज रूप से ध्यान में लीन हो गया था। उसने अपनी आँखें मूँदकर साँस पर ध्यान केंद्रित किया था। अब वर्तमान में, अत्यधिक दुर्बलता के कारण वह ध्यान की उसी अवस्था में फिर गिर पड़ा।

इसके साथ ही उसने निश्चय किया कि अब वह उपवास की यह लंबी अवधि समाप्त करेगा। वह कठिनाई से उठ खड़ा हुआ, अपना चीवर (वस्त्र) ठीक किया, अपना भिक्षापात्र लिया और भोजन की याचना हेतु सेनानी ग्राम की ओर प्रस्थान किया।

महा-श्रमण भिक्षा के लिए गाँव जाकर भिक्षापात्र में प्राप्त कुछ आहार लेकर पुनः नदी के किनारे वनप्रदेश की ओर लौट आए और एक वृक्ष की छाया में बैठ गए। उन्होंने नदी में उतरकर ठंडे जल से स्नान किया। शरीर से चिपकी हुई धूल और मिट्टी को धो डाला। बालों को उखाड़ना छोड़ दिए। एक खोपड़ी पर सिर रखकर श्मशान  में सोना त्याग दिया। लंबी सांस लेकर उसे शरीर में रोके रखने और घंटों शरीर को कष्ट देने की प्रथा को भी त्याग दिया। अब उन्होंने ठंडा जल पिया, जिससे उनका पेट शीतलता से भर गया।

उन्हें ध्यानपूर्वक देख रहे पाँच सहायक श्रमण, महा-श्रमण में आए इस परिवर्तन को देखकर विचलित हो गए। जब वे समझ रहे थे कि यह तपस्वी जीवन के बोध को प्राप्त करने के निकट है, तब उन्होंने सोचा कि यह अब तृष्णा के वश होकर भोजन के प्रति आकर्षित हो गया और कठोर तपस्या को त्याग दिया। इससे वे अत्यंत निराश हो गए। उनका विश्वास इतना टूट चुका था कि, अब और इस पर कोई अपेक्षा रखना व्यर्थ है। ऐसे विचार करते हुए वे पाँचों उन्हें बिना बताये ही छोड़कर चले गए।

अब यह महा-श्रमण पूर्ण रूप से अकेले रहने लगा। उसे सँभालने या देखने वाला कोई नहीं था। वे सभी उसे छोड़कर चले गए, किन्तु यह बात उसके मन को किसी प्रकार की दुःख न दे सका। वह संसार से मुक्ति पाने के मार्ग की खोज में दृढ़ निश्चय से एक अत्यंत कठिन और परम गंभीर कार्य में निरंतर लगे रहे। अब वह प्रतिदिन सेनानी ग्राम जाकर भिक्षा ग्रहण करते, फिर किसी वृक्ष की छाया में बैठकर भोजन करते। शरीर को थोड़ी देर विश्राम देने के पश्चात वे चंकमन साधना में लीन हो जाते। फिर पद्मासन में बैठते, आँखें मूँदते। इस प्रकार शरीर और मन धीरे-धीरे स्वस्थ होते गए, और कुछ ही समय में महा-श्रमण अपने शरीर को पूरी तरह पुनः स्वस्थ करने में सफल हुए।

एक गर्मी की ऋतु में वैशाख माह आ पहुँचा। वैशाख की पूर्णिमा का दिन भी उदित हुआ। उसी दिन प्रातः महा-श्रमण एक बरगद वृक्ष की छाया में पद्मासन में बैठकर ध्यान में लीन थे। तभी किसी के आने की आहट सुनाई दी, उन्होंने आँखें खोलीं और देखा। एक सेठ की पुत्री सुजाता अपनी सेविका के साथ, श्रद्धा से सिर झुकाते हुए एक सुनहरा थाल हाथ में लेकर वहाँ आ पहुँची। वह पास आकर प्रणाम कर महा-श्रमण से बोली:

स्वामी, कृपया मुझ पर करुणा करके मेरे द्वारा श्रद्धापूर्वक तैयार किया गया यह खीर स्वीकार करें!”

उस क्षण महा-श्रमण के पास उस खीर को ग्रहण करने के लिए कोई पात्र नहीं था। यह देखकर वह स्त्री बोली, “स्वामी, मैं केवल यह खीर ही नहीं, इसे रखा गया यह स्वर्ण पात्र भी आपको अर्पण करती हूँ।” और वह खीर से भरा हुआ स्वर्ण पात्र उन्होंने महा-श्रमण को समर्पित किया।

महा-श्रमण वह पात्र लेकर नदी के पास पहुँचे। निरंजरा नदी में स्नान किया। फिर किनारे की रेत पर, एक वृक्ष की छाया में बैठकर उन्होंने वह खीर ग्रहण की। उसके बाद वे पुनः उस स्वर्ण पात्र को लेकर नदी की ओर आए। उस समय ग्रीष्म ऋतु के कारण निरंजरा नदी बहुत गहरी नहीं थी, पानी घुटनों तक ही था।

वे नदी के मध्य तक पहुँचे, आँखें बंद कर कुछ संकल्प लेकर वह स्वर्ण पात्र नदी की जलधारा पर रख दिया। अद्भुत दृश्य था! नीचे की ओर बहने वाली तीव्र धारा को चीरता हुआ वह स्वर्ण पात्र उल्टी दिशा में, ऊपर की ओर बहते हुए, मानो किसी अश्व की भाँति प्रवाह को काटता हुआ चला गया। फिर नदी के मध्य एक भँवर में घूमता हुआ वह नीचे डूब गया। यह सब देख महा-श्रमण उस पार की ओर चल पड़े।

उस प्रदेश में रेत से ढका हुआ एक वनक्षेत्र था। स्थान-स्थान पर विशाल बरगद वृक्ष फैले हुए थे। एक ऐसे बरगद के वृक्ष के नीचे पहुँचकर महा-श्रमण ने कुछ क्षण शरीर को विश्राम दिया, फिर उठकर सीधे चलने वाले ध्यान में लीन हो गए। उस दिन उनके मन में एक विशेष, तीव्र और निर्णायक संकल्प स्पष्ट रूप से उनकी आँखों से झलकता था। यह प्रतीत होता था कि वही दिन उनके लिए एक निर्णायक दिन होना चाहिए। सूर्य धीरे-धीरे अस्ताचल को जा रहा था। पूरब की ओर फैला हुआ हल्का अंधकार वैशाख पूर्णिमा की चंद्रमा को आकाश में उदित होने का स्थान प्रदान कर रहा था।

महा-श्रमण के पास कोई आया और उन्हें कुछ कुसा घास भेंट कीं। उन्हें लेकर जब वे विचार कर रहे थे कि आज ध्यान साधना के लिए किस स्थान पर बैठना उचित होगा, तब उन्होंने देखा कि एक बहुत विशाल पीपल वृक्ष (बोधिवृक्ष) वहाँ है, जिसकी शाखाएँ चारों ओर फैली हुई थीं। उस वृक्ष की छाया के नीचे कोमल रेत बिछी हुई थी। वहाँ जाकर उन्होंने वृक्ष की परिक्रमा की और एक उपयुक्त स्थान ढूँढ़ते हुए अंततः इस निर्णय पर पहुँचे कि बहती नदी की ओर मुँह करके बैठना उपयुक्त रहेगा। उन्होंने उस वृक्ष की छाया में, रेत पर, कुश घास बिछाई और उसके ऊपर अपना चिवर फैलाया।

उनके मन में यह संकल्प स्पष्ट था कि वे सत्यबोध प्राप्त किए बिना इस आसन से नहीं उठेंगे।

“यदि इस शरीर का रक्त और मांस सूख जाए, तो भी ऐसा ही हो! यदि केवल नसें और हड्डियाँ शेष रह जाएँ, तो भी ऐसा ही हो! लेकिन पुरुष पराक्रम और पुरुषार्थ से जो मुक्ति प्राप्त किया जा सकता है, यदि वह मुझे प्राप्त नहीं होता, तो मैं इस आसन से कभी नहीं उठूँगा।” ऐसा दृढ़ निश्चय करके वे उस आसन पर बैठे।

पूरब से गोल-गोल, विशाल पूर्णिमा की चाँदनी, स्वर्ण आभा से युक्त उदित हो रही थी। चाँद की किरणों से महा-श्रमण का शरीर आलोकित हो उठा, मानो वह एक स्वर्णमयी मूर्ति हो। पश्चिम आकाश में अस्त होते सूर्य की लालिमा से आकाश अग्नि के अंगारे के समान प्रतीत हो रही थी।

मुक्ति प्राप्त करने हेतु इस दृढ़ निश्चय और अडिग तपस्या में समर्पित यह आसन त्रिलोक में अनुपम था। सोने, चाँदी, मोतियों, मणियों और हीरों से सुसज्जित सभी सिंहासनों पर विराजमान रहे सम्राट भी जन्म-मरण के आघात से बच न सके और सब कुछ त्याग कर मृत्यु को प्राप्त हुए। किंतु यह महा-श्रमण उस समस्त जरा-मरण से मुक्त होने, दुःख से बचने और महान पराक्रम से जन्म-मरण के संसार से पार जाने के उद्देश्य से इस अटल संकल्प के साथ इस ध्यान आसन पर बैठ गए थे।

यदि यह पृथ्वी पलट जाती, यदि सारे लोक डगमगा जाते, तो भी वे अडोल रहते। यह वह महान आसन था जो अनंत संसार के आर-पार संचित पारमिताओं के बल से उत्पन्न हुआ था। यह वह पवित्र पद्मासन था जिसमें उन्होंने अपने जीवन को सत्य के लिए अर्पित करते हुए ध्यान में प्रवेश किया था।

पद्मासन वह आसन है जिसमें दोनों पाँव की तलहथी ऊपर की ओर दिखाई देती है, शरीर सीधा होता है और साधक स्थिर होकर बैठता है। जब तक सत्यबोध (मुक्ति) प्राप्त नहीं होगा, तब तक इस आसन से उनके पाँव पुनः नीचे फैलाकर उठ खड़े हो सकें — ऐसा सामर्थ्य किसी देवता, पापी-मार, ब्रह्मा, श्रमण, ब्राह्मण या देव-मानव समुदाय में किसी के पास नहीं था।

सभी प्राणियों की आँख, कान, नाक, जीभ, शरीर और मन को अपने वश में लेकर उन्हें इच्छानुसार भवचक्र में बाँधने वाला लोकाधिपति पापी-मार ही केवल ऐसा था जिसने उस दिन अपनी भयानक सेना के असंख्य योद्धाओं को साथ लेकर महा-श्रमण को उस स्थान से उठाने के लिए असफल प्रयास आरंभ किया।

उस दिन वह स्थान वास्तव में भयावह हो गया। अत्यंत उग्र और हिंसात्मक बन गया। यहाँ तक कि देवताओं और ब्रह्मों के लिए भी उस दृश्य को देखना कठिन हो गया। एकांत में वृक्ष की छाया के नीचे पद्मासन में बैठा एक महान तपस्वी आँखें बंद कर मुक्ति प्राप्ति के लिए ध्यानस्थ था।

लेकिन बोधि को प्राप्त करना क्या इतना सरल था? उस तपस्वी के चारों ओर, ऊपर, नीचे, आठों दिशाओं से जो कोई देखता, वह डर से काँप जाता, भय से मर जाता। इतनी भयंकर मार की सेना थी। और उसी सेना के मध्य से प्रकट हुआ लोकाधिपति मार स्वयं — जो श्रमण को उस स्थान से उठाने के लिए निरंतर प्रयासरत रहा। परन्तु उसके सारे प्रयत्न व्यर्थ हो गए।

तब उस समय महा-श्रमण ने करुणा से युक्त होकर उसे संबोधित किया:
“मार, तू कहता है कि मैं जिस स्थान पर बैठा हूँ, वह तेरा है। अतः तू चाहता है कि मैं यहाँ से उठ जाऊँ। परंतु क्या तेरे पास कोई प्रमाण है, कोई साक्ष्य है जिससे यह सिद्ध हो कि यह स्थान वास्तव में तेरा है?”

इतना सुनते ही दसों दिशाओं से मार की सेनाओं की ओर से एक भयानक गर्जना उठी:
“क्यों नहीं! हम… हम उसके लिए साक्ष्य देंगे!”

महान श्रमण शांत बने रहे। तब मारा ने उन्हें पुनः चुनौती दी:
तो सुनो, हे श्रमण! क्या तुम्हारे पास कोई है जो यह सिद्ध कर सके कि इस स्थान पर तुम्हारा अधिकार है? यदि नहीं, तो तू यहाँ से उठकर चला जा!”

उसी क्षण महा-श्रमण ने अपने चीवर के भीतर से अपना दायाँ हाथ बाहर निकालकर अपनी उँगलियों की नोक से धरती को स्पर्श किया और पृथ्वी देवी को संबोधित किया:
“हे महापृथ्वी, क्या तुम नहीं जानती कि मैं यहाँ बैठने के लिए अनेक कल्पों तक अत्यंत परिश्रमपूर्वक दस पारमिताओं को पूरा किया ? शीघ्र बताओ।”

यह एक अद्भुत क्षण था। उसी क्षण पृथ्वी काँप उठी। महाबोधि वृक्ष के चारों ओर समुद्री लहरों की भाँति भूमि ऊपर-नीचे होकर गूँज उठी। हाथी भूमि पर गिर पड़ा  और साथ ही साथ लोकाधिपति मार भी धरती पर ढेर हो गया। पलभर में सब कुछ अदृश्य हो गया।

महा-श्रमण शांति से चार ध्यान उत्पन्न करते हुए, अपने पूर्वजन्मों को देखने वाली दिव्य दृष्टि प्राप्त करते हैं। फिर उन्होंने समस्त प्राणियों के कर्मों के अनुसार जन्म-मृत्यु के चक्र को देखने वाला चुतुपपात ज्ञान उत्पन्न किया।

उसके बाद उन्होंने कारण और परिणाम के सिद्धांत पर आधारित संसार के सत्य स्वरूप — अनित्य, दुःख और अनात्म (जिसे अपने वश में नहीं कर सकते) — को स्पष्ट रूप से देखा। उन्होंने चार आर्य सत्य को पूर्ण रूप से बोध कर लिया और आर्य अष्टांगिक मार्ग की पूर्णता को प्राप्त किया।

सभी क्लेशों से मुक्त होकर, तथागत के दस बलों का ज्ञान, चार विशारद ज्ञान और नौ प्रकार के अरहंत बुद्धगुणों से शोभायमान होकर उन्होंने श्री संबुद्धत्व को साक्षात प्राप्त किया।

यह वह महान और पावन क्षण था, जब इस शुभ कल्प (भद्रकल्प) में प्रकट हुए चौथे बुद्ध – हमारे दिव्य गुरु, तथागत, अरहंत, सम्यक संबुद्ध, भगवान गौतम बुद्ध ने विमुक्ति, ज्ञान और विजय की दिव्य श्रीप्राप्ति की।

उठी हुई स्वप्नमयी वैशाख पूर्णिमा की तारा – स्वर्ण से चमकती आकाश-गंगा में जगमगाई
हिमालय की पर्वत चोटियों पर – असमय खिले पुष्पों की वर्षा सी छाई
बादलों की पंक्तियाँ, मंद-मंद बहती पवन – सुगंधित सुवर्ण किरणें लहराती रहीं
देवताओं के गीतों और स्तुतियों से – गूंज उठा यह संपूर्ण संसार

वीणा, बाँसुरी, मृदंग की ध्वनि – सैकड़ों तालों के साथ बज उठी
नील कमल सरीखी भूमि पर, विदुरमणि मंडप में – विराजमान थे हमारे सम्यक संबुद्ध
भेंट चढ़ाई गईं बारंबार – एक महान अद्भुत दृश्य त्रिलोक में प्रकट हुआ
वह वैशाख की पूर्णिमा थी – और आज… हाँ, आज वह स्मृति मुझे भी जाग उठी।

8 Comments

  • Reshma Meshram
    Posted May 12, 2025 8:58 am 0Likes

    त्रिवार साष्टांग प्रणाम पूज्य भंते जी🙇🙏बहुत ही अदभुत जानकारी दृश्य पढ़ने को मिला रोम रोम पुलकित हो गया। तथागत इतने कष्टों को सहा । ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमारे लिए इतने मार्गों से होकर गुजरे😳 । सोचती हूं कभी मैं कर पाऊंगी कि नहीं। 1 घंटे ध्यान के बाद उठने का मन करता है। सोचती हूं बैठकर। इतनी सारी परमिता पूरी की । मै धन्य हो गई। थोड़ा थोड़ा ही सही तथागत के बताए हुए मार्ग पर चल रही। धन्यवाद आपका ऐसे ही सार लेकर आइए तो हमको जानकारी मिलती रहे। सबका जीवन सार्थक हो सके। 🙏🙏🙏

  • Dharamveer Singh
    Posted May 12, 2025 8:59 am 0Likes

    साधू साधू साधू

  • Dhanshri
    Posted May 12, 2025 9:23 am 0Likes

    Sadhu sadhu sadhu 🙏🙏🙏 namoh buddhaya🌺🌺🌺

  • Umesh Kumar Gautam
    Posted May 12, 2025 9:55 am 0Likes

    Namo Buddhay 🙏🌷🌷🙏
    Sadhu Sadhu Sadhu 🙏🌷🌷🙏
    Happy Vaisakh Buddh Purnima 🙏 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

  • Sanghamitra
    Posted May 12, 2025 10:18 am 0Likes

    Namo Buddhaya, Namo Dhammaya, Namo Sanghaya, Sadhu sadhu sadhu, Anumodami, Metta!

  • Pronali
    Posted May 12, 2025 12:24 pm 0Likes

    अद्भुत asadharan pratibha ki chaap chord di hai mere dil per. Buddha ki jivan ki stories kitne bhi baar sun luu maan nahi bharta! Karmo ka siddhant hai jo buddhisht muze padhne mila hai. Thank-you karma
    Aur thank-you Buddha Rashmi

  • Deveindar Rajaiah Thokala
    Posted May 12, 2025 6:53 pm 0Likes

    Namo Buddhay 🙏🌷🌷🙏
    Sadhu Sadhu Sadhu 🙏🌷🌷🙏

  • latest bangla news
    Posted June 4, 2025 4:46 am 0Likes

    Hi my family member I want to say that this post is awesome nice written and come with approximately all significant infos I would like to peer extra posts like this

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