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आनापानसति ध्यान
(अपने श्वास के प्रति सति-स्मृति)

भगवान बुद्ध ने महा सतिपट्ठान सूत्र में आनापानसति ध्यान के बारे में ऐसा विस्तार किया है।

” हे भिक्षुओं ! इस धर्म पर चलने वाला श्रद्धालु व्यक्ति इस शरीर के सत्य स्वभाव को बोध करते हुए शरीर के प्रति विपस्सना कैसे करता है ?

हे भिक्षुओं ! इस धर्म पर चलने वाला श्रद्धालु व्यक्ति अरण्य में जाकर या वृक्ष की छाया में जाकर या खाली जगह में जाकर पालथी लगाकर शरीर सीधा करके साधना निमित्त ग्रहण करके बैठता है। इसके बाद वह सति-स्मृति से श्वास लेता है, सति-स्मृति से श्वास छोड़ता है। लंबी श्वास लेते समय लंबी श्वास ले रहा हूँ, ऐसा जानता है। लंबी श्वास छोड़ते समय लंबी श्वास छोड़ रहा हूँ, ऐसा जानता है। छोटी श्वास लेते समय, छोटी श्वास ले रहा हूँ, ऐसा जानता है। छोटी श्वास छोड़ते समय छोटी श्वास छोड़ रहा हूँ , ऐसा जानता है।

पूर्ण रूप से शरीर को समझकर श्वास लूँगा, ऐसा सीखता है। पूर्ण रूप से शरीर को समझकर श्वास छोड़ूँगा, ऐसा सीखता है। श्वास को हल्का करके श्वास लूँगा, ऐसा सीखता है। श्वास को हल्का करके श्वास छोड़ूँगा, ऐसा सीखता है।

हे भिक्षुओं ! जैसे बढ़ई या बढ़ई का नौकर लकड़ी को लंबा छिलते समय, लंबा छिलता हूँ, ऐसा जानता है। थोड़ा छिलते समय थोड़ा छिलता हूँ, ऐसा जानता है।

वैसे हीं भिक्षुओं ! इस धर्म पर चलने वाला श्रद्धालु व्यक्ति लंबी श्वास लेते समय लंबी श्वास ले रहा हूँ, ऐसा जानता है। लंबी श्वास छोड़ते समय लंबी श्वास छोड़ रहा हूँ, ऐसा जानता है। छोटी श्वास लेते समय, छोटी श्वास ले रहा हूँ, ऐसा जानता है। छोटी श्वास छोड़ते समय छोटी श्वास छोड़ रहा हूँ, ऐसा जानता है।

पूर्ण रूप से शरीर को समझकर श्वास लूँगा, ऐसा सीखता है। पूर्ण रूप से शरीर को समझकर श्वास छोड़ूँगा, ऐसा सीखता है। श्वास को हल्का करके श्वास लूँगा, ऐसा सीखता है। श्वास को हल्का करके श्वास छोड़ूँगा, ऐसा सीखता है।

इस प्रकार से अपने श्वास के बारे में सत्य स्वभाव बोध करते हुए शरीर पर विपस्सना करता है। दूसरों के श्वास के बारे में सत्य स्वभाव बोध करते हुए शरीर पर विपस्सना करता है। अपने और दूसरों का श्वास के बारे में सत्य स्वभाव बोध करते हुए शरीर पर विपस्सना करता है।

शरीर के श्वास के उत्पन्न होने का सत्य स्वभाव को बोध करते हुए विपस्सना करता है। शरीर के श्वास के नष्ट होने का सत्य स्वभाव को बोध करते हुए विपस्सना करता है। शरीर के श्वास के उत्पन्न और नष्ट होने का सत्य स्वभाव को बोध करते हुए विपस्सना करता है।

श्वास सहित शरीर है, ऐसा उसका सति-स्मृति स्थापित होता है। वह उसके लिए बोध बढ़ाने के लिए, सति-स्मृति बढ़ाने के लिए उपकार होता है। अनासक्त होकर वास करता है। दुनिया में किसी भी चीज के प्रति तृष्णा नहीं करता है।

हे भिक्षुओं ! ऐसे भी धर्म पर चलने वाला श्रद्धालु व्यक्ति शरीर के सत्य स्वभाव को बोध करते हुए शरीर पर विपस्सना करता है। ”

साधु !  साधु !  साधु !